________________
प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. १ उ. ४ सू० ३ कर्मावेदने मोक्षाभावकथनम् ६९९ नमकारद्वयम् , अर्हता-जिनेन 'सुयमेयं अरहया' स्मृतमेतदर्हता, एतत् स्मृतमिव स्मृतमहता, अहंतां स्मरणाभावात् ' विनायमेयं अरहया ' विज्ञातमेतदर्हता, विज्ञातम् - वि= विविधप्रकारैः = देशकालादिविभागरूपैर्जातं केवलिना तदेव दर्शयति-' इमं कम्म' इत्यादि, ' इमं कम्मं अयं जीवे अब्भुवगमियाए वेयणाए वेयइस्सइ ' इदं कर्मायं जीव आभ्युपगमिक्या वेदनया वेदयिष्यति, 'इदं कर्मायं जीवः' इत्यनेन जीवकमणोरुभयोरपि केलिप्रत्यक्षविषयत्वं प्रदर्शितम् , अयं जीवः, इदं कर्म — अब्भुवगमियाए' आभ्युपगमिक्या, अभ्युपगमः प्रवज्याग्रहणादिनादारभ्य ब्रह्मचर्यभूमिशयनसदोरकमुखवत्रिकाबन्धनकेशलुश्चये दो प्रकार अहंत प्रभु ने जाने हैं, विशेष जाने हैं। उन्होंने इन्हें स्मरण जैसा किया है।
शंका-अहंतोंके स्मरणज्ञान नहीं होता है, क्यों कि यह मतिज्ञान का भेद है । मतिज्ञान, बिना इन्द्रियों की सहायता के नहीं होता है। इसलिये यहां क्यों "सुयमेय " ऐसा पद दिया गया है ?। उत्ता-बात ठीक है परन्तु " स्मरण जैसा" किया गया है ऐसा कहा गया है "स्मरण किया है" ऐसा नहीं कहागया है। अथवा-"उन्होंने इन्हें स्मरण किया है" इस का तात्पर्य यह है कि उन्होंने इनका प्रतिपादन किया है। ___ अहंतप्रभु ने इन्हें देश, काल आदि के विभागरूप विविधप्रकारों से जाना है। इसी बातको (इमं कम्मं अयं जीवे अब्भुवगमियाए वेयइस्सइ) इस सूत्र द्वारा सूत्रकार दिखलाते हैं कि यह जीव इस कम को आभ्युपगमिक वेदनाद्वारा वेदन करेगा। प्रवज्याग्रहण, आदिसे लेकर ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, सदोरक मुखवस्त्रिका बंधन, केशलुं वन, आदि का स्वीकार એ બે પ્રકાર અરિહંત પ્રભુએ જાણ્યા છે. વિશેષ જાણ્યા છે અને તેમણે તેમનું સ્મરણ જેવું કર્યું છે.
શંકા-અરિહંતને સ્મરણ જ્ઞાન હોતું નથી, કારણ કે તે મતિજ્ઞાનને ભેદ છે. મતિજ્ઞાન ઇન્દ્રિયની સહાયતા વિના થતું નથી. તે અહીં “ सुयमेयं" ५४ ॥ माटे भूज्यु छ ?
ઉત્તર–શંકાકારની શંકા ઠીક છે પણ “સ્મરણ જેવું કર્યું છે.” मेम ४छ, “ २०२५५ छे." मेवु ४युं नथी. अथवा तेमणे तेनु સ્મરણ કર્યું છે, એમ કહેવાનું તાત્પર્ય એવું પણ છે કે તેમણે તેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે.
અરિહંત પ્રભુએ તે કર્મોને દેશ, કાળ આદિના વિભાગરૂપ વિવિધ अरे या छ. मेरा पात सूत्र४१२ नीयन सूत्र द्वारा मतावे छे. (इम कम्मं अयं जीवे अब्भुवपगमियाए वेयणाए वेयइस्सइ) 04 L भर्नु आयुयाभि વેદના વડે વેદન કરશે, પ્રવજ્યાગ્રહણથી લઈને બ્રહ્મચર્ય, ભૂમિશયન, દેરાસહિત
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧