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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. १ उ. ४ सू० २ उपस्थानापक्रमणस्वरूपम्
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कथ्यते, यदा च मिथ्यादृष्टिर्भवति जीवस्तदैव स जीवो बालवीर्यो भवति, अतोऽत्र उपस्थानं जीवस्य बालवीर्यतयैव भवति न तु पण्डितवीर्यतया बालपण्डितवीर्यतया वेति तदेवाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'बालबोरियत्ताए उबहाएज्जा" बालवीर्यतया उपतिष्ठेत् यदिदमुपस्थानं तद् बालवीर्यताकारणकमेवेति भावः । निषेधपक्षं कथयति - णो पंडियवीरित्ताए उवट्टाएज्जा, णो बालपंडियवरियता बढाएज्जा, " नो पण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत् नो बालपण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत् सर्वं वाक्यं सावधारणमिति न्यायात् यदिदमुपस्थानं तद् बालवीर्यतयैव, नेतराभ्यां पण्डितवीर्य बालपण्डितवीर्याभ्यामित्यभिप्रायः ।
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वीर्यता से उपस्थान करता है ? जब जीव के मिथ्यात्व का उदय रहता है तभी वह जीव मिथ्यादृष्टि कहा जाता है और जीव जब मिथ्यादृष्टि होता है तभी वही जीव बालवीर्यवाला माना जाता है। इसलिये इस जगह जीवका उपस्थान बालवीर्यता से ही होता है । पण्डितवीर्यता से और बालपण्डितवीर्यता से नहीं। इसी लिये प्रभुने इन प्रश्नों के उत्तर रूप में ऐसा कहा है कि " गोयमा ! बालवीरियन्ताए उवद्वावेज्जा " हे गौतम ! जीव का जो उपस्थान होता है वह बालवीर्यता से होता है, न पण्डित वीर्यता से वह होता है और न बालपण्डितवीर्यता से होता है। तात्पर्य कहने का यह है कि जो यह जीवका उपस्थान होता है वह बाल afar के कारणवाला होता है ? बालवीर्यता ही है कारण जिस का ऐसा ही होता है । अर्थात् उपस्थान का कारण बालवीर्यता ही है । सूत्रकार ने जो " णो पंडियवीरियत्ताए उवद्वावेजा णो बालपंडिय वीरियत्ताए उबावेजा " ऐसा निषेध पक्ष का कथन किया है उससे यह बात प्रकट
ઉદય રહે છે ત્યાં સુધી તેને મિથ્યાદૃષ્ટિ કહેવામાં આવે છે, એવા મિથ્યાવૃષ્ટિ જીવને માલવીય તાવાળે કહેવાય છે. તેથી આ જગ્યાએ એવું કહ્યું છે કે જીવનું ઉપસ્થાન ખાલવીય તાથી જ થાય છે. પંડિતવીયતાથી કે મલપંડિત વીર્યતાથી જીવનું ઉપસ્થાન થતું નથી. તે કારણે મહાવીરસ્વામીએ ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નોના नवाश्ये उद्धुं छे “ गोयमा ! बालवी रित्ताए उवहाएज्जा, णो पंडियत्रीरियताए Bageज्जा, णो बालपंडियवीरित्ताए उबट्टाएज्जा " हे गौतम! लवनुं ने ઉપસ્થાન થાય છે. તે ખાલવીયતાથી થાય છે. તે પડિતવીય તાથી તેમજ ખાલપડિત વીર્યતાથી થતું નથી. તાત્પ એ છે કે માલવીયતા જ જીવના ઉપસ્થાનમાં કારણભૂત છે. સૂત્રકારે જે णो पंडियवीरित्ताए उवद्वावेज्जा, णो बालप डियवीरित्ताए उवट्टाएज्जा ” मेवं निषेधात् उथन अछे तेथी मे
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧