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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श०२ उ०१ सू१९ सलेश्यजीवविचारः पडिवन्न भो पुण अन्नयरीए उ लेस्साए' इति । येन जीवेन पूर्व संयमग्रहणं कृतम् , एतादृशजीवस्य संयमावस्थायां पसु लेश्यासु कस्यचिदप्यन्यतमा लेश्या भवितुमहंतीति, तत् कृष्णादिद्रव्यरूपा द्रव्यलेश्याऽवसेया । 'काउलेस्साणवि ' कापोतलेश्यानामपि कापोतलेश्यावतामपि ' एसेव गमो ' एप एव गमः नीलकृष्णले. श्योक्त एव आलापको विज्ञेयः । 'नवरं' विशेषस्त्वयम्-'नेरइया जहा ओहिए दंडए तहा भाणियवा' नैरयिका यथा औधिके दण्ड के तथा भणितव्याः, नारकवेदनासूत्रे औधिकदण्डकवद् कथनीयाः। ते चेत्यम्-"नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सन्निभूया य असन्निभूया य' इति । असज्ञिनां प्रथमपृथिव्यामेवोत्पादो भवति, तत्र च कापोती लेश्या भवतीति, अत एवोक्तम्-'काउलेस्साण वि' इति । किया गया है। तथा ऐसा जो कहा गया है कि " पुवपडियन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए" जिस जीवने पूर्व में संयम ग्रहण किया है ऐसा कोई भी जीव संयमावस्था में छह लेश्याओं में से किसी एक लेश्या में हो सकता है से। यह कथन कृष्णादि द्रव्यरूप लेश्या की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये। " काउलेस्लाण वि" कापोत लेश्यावालों का भी नोल और कृष्णलेश्या में कहे हुए पाठ के समान ही पाठ जानना चाहिये, परन्तु जो विशेषता है वह इस प्रकार से है " नेरइया जहा ओहिए दंडए तहा भाणियव्या" वेदना सूत्र में नारक औधिक दण्डक की तरह जानना-वे इस प्रकार से नारक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। एक संज्ञिभूत और दूसरे असज्ञिभूत । असंज्ञि जीवों का प्रथम पृथ्वी में ही उत्पाद होता है वहां कापोत लेश्या ही होती है, इसीलिये कहा कि "काउलेस्साण वि" "तथा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा जस्स अत्थि" जिसजीव तथा 02 अपामा माव्युं छे , “ पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए" 2 वे पूर्व सयभ अ य हाय छ. वो छ ५५ १ સય માથામાં છે લેશ્યાઓમાંથી કઈ પણ એક લેસ્થામાં હોઈ શકે છે. मा ४थन द्रव्य३५ सेश्यानी अपेक्षा ४युं छे सेम सम.. “काउटेस्साण वि" अपातोश्यापान सूत्रमा ५ नास भने वेश्याना सूत्रपाठ प्रमाणे ४ समन्व.. १५ तभा मा ४२नी विशेषता छ.-" नेरइया जहा ओहिए दंडए तहा भाणियव्वा " वेहन सूत्रमा ना२ने मौधि ४४ प्रमाणे જ સમજવા તે આ પ્રમાણે છે-નારક જીવ બે પ્રકારના કહ્યા છે-(૧) સંજ્ઞિભૂત અને (૨) અસંગ્નિભૂત. અસંગ્નિ જીવે પ્રથમ નરકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે, भने त्यो पोतोश्या १ डोय छ तेथी झुछ 3-"काउलेस्साण वि" तथा भ-६० શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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