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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श०१ उ० २ सू० ५ पृथिवीकायिकादिजीवनिरूपणम् ४४५ 'तं जहा' तद्यथा-' आरंभिया' आरम्भिकी १ ‘जाव मिच्छादसणवत्तिया' यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया५ यावछब्देन पारिग्रहिकी २, मायाप्रत्यया ३ अप्रत्याख्यानक्रिया ४ इति क्रियात्रय ग्राह्यम् । ' से तेणठेणं' तत्तेनार्थेन तेन पूर्वोक्तेन कारणेन एवमुच्यते पृथिवीकायिकाः सर्वे समक्रिया इति । ' समाउया समोववभगा' समायुष्काः समोपपन्नकाः 'जहा नेरइया तहा भाणियव्या' यथा नैरयिकास्तथा भणितव्याः समायुष्कसमोपपन्नकपदनिष्पन्नं भङ्गचतुष्टयं अत्रैव द्वितीयोद्देशकस्य तृतीयनैरयिकसूत्रोक्तभङ्गचतुष्टयवदत्रापि विज्ञेयमिति । 'जहा पुढवीकाइया तहा जाव चउरिंदिया' यथा पृथिवीकायिका तथा यावत् चतुरिन्द्रियाः, यथा पृथिवीकायिकास्तथा यावच्छब्दग्राह्या अप्तेजोवायुवनस्पतिद्वीहोती हैं। ये पांच क्रियाएँ इस प्रकार से हैं-१ आरंभिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया ५ यावत् शब्द से २ पारिग्रहिकी, ३ मायाप्रत्यया, ४ अप्रत्याख्यानक्रिया, इन तीन क्रियाओं को ग्रहण किया गया है। "से तेणद्वेणं " इस पूर्वोक्त कारण से हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि ये समस्तपृथिवीकायिक जीव एकसी क्रियावाले हैं ।“ समाउया समोववन्नगा" समायुष्क समोपपन्नक "जहा नेरइया तहा भाणियव्वा" जैसे नैरयिक कहे गये है वैसे ही जानना चाहिये । समायुष्क समोपपभक पद से निष्पन्न भङ्गचतुष्टय इसी द्वितीय उद्देशक के तृतीय नैरयिक सूत्र में कथित चौथे भङ्ग की तरह यहां पर भी जानना चाहिये । " जहा पुढवीकाइया तहा जाव चउरिदिया" जैसा पृथिवीकायिकों का वर्णन है उसी प्रकार से चौइन्द्रिय तक के जीवों का अर्थात् यावत् शब्द से गृहीत हुए अपूकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, (या। मा प्रमाणे छ-(१) २२ मिठी ठिया, (२) पारिश्रडिटी, (3) भायाप्रत्यया, (४) अप्रत्याध्यानठिया मने (५) भिथ्याशनप्रत्यया. “से तेणदेणं" ઉપર કહેલા કારણોને લીધે હે ગૌતમ! મેં એવું કહ્યું છે કે પૃથ્વીકાયના सा मे सभी जियावा डायछ. " समाउया समोववन्नगा" समायु४ भने सभात्पनना विषयमा “जहा नेरइया तहा भाणियव्वा" नार કોના જે પ્રમાણે જ સમજવું. સમાયુષ્ક સમે પપન્નકના વિષયમાં જે ભંગચતુષ્ટય (ચારભાગા) થાય છે તે આ બીજા ઉદ્દેશાના ત્રીજા નારક સૂત્રમાં सतावेली या प्रमाणे ४ सभा , “जहा पुढवीकाइया तहा जाव चउरिंदिया" रे ॥२ॐानुं व युं छे. ते ४ यौन्द्रिय सुधान॥ ७॥ qन ५ सभा. मी “यावत्" ५४थी २५५४यि, ते४२४148, वायुायि શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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