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प्रमेयवन्द्रिकाटीका श०१ उ०१ सू०२५ नैरयिकादीनामात्मारंभादिनिरूपणम् ३९७ औधिकाः जीवाः नवरं प्रमत्ता अप्रमत्ता न भणितव्याः, तेजोलेश्यस्य पद्मलेश्यस्य शुक्ललेश्यस्य यथा औधिका जीवाः नवरं सिद्धा न णितव्याः ॥सू०२५॥
टीका-नारकादि चतुर्विंशति दण्डकेषु आत्मारम्भादिकं निरूपयनाह'नेरइयाणं भंते' इत्यादि । 'नेरइया णं भंते ' नरयिकाः खलु हे भदन्त ! किम् ‘आयारंभा-परारंभा तदुभययारंभा अणारंभा' आत्मारम्भाः परारम्भाः तदुभयारम्भाः अनारम्भाः ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! ' नेरइया' वाले जीवकी वक्तव्यता सामान्य जीवसूत्रकी तरह जाननी चाहिये। (नवरं) विशेषता यहां पर यह है कि (पमत्त अप्पमत्ता न भाणियव्वा) सामान्य जीवोंकी वक्तव्यतामें जो प्रमत्त और अप्रमत्त जीव विषयक कथन किया गया है वह यहां पर नहीं लेना चाहिये । (तेउलेसस्स पम्हलेसस्स सुक्कलेसस्स जहा ओहिया जीवा नवरं-सिद्धा न भाणियव्वा) तेजोलेश्यावाले जीवकी पद्मलेश्यावाले जीवकी, और शुक्ललेश्यावाले जीवकी वक्तव्यता सामान्य जीवसूत्रकी तरह जाननी चाहिये । परन्तु विशेषता यहां पर यह है कि तेजोलेश्या आदि आलापकोमें सिद्ध जीवोंकी परिगणना नहीं करनी चाहिये ॥
टीकार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा चौबीसदण्डकोंमें आत्मारंभादिकका निरूपण किया है-सबसे प्रथम गौतमस्वामीने जो नारक जीव आत्मारंभी हैं ? या परारंभी हैं या उभयारंभी है ? या अनारंभी हैं ? ऐसा प्रश्न किया है और प्रभुने उसका जो उत्तर दिया है वह सुखगम्य है। आगे जो पुनः उनसे ऐसा पूछा गया है कि हे भदन्त ! आप ऐसा किस
वानु ४थन सामान्य ७१सूत्र प्रमाणे सम४(नवरं) विशेषता से पातनी छ ॐ (पमत्त अप्रमत्ता न भाणियवा) सामान्य वोना ४थनमा रे પ્રમત્ત અને અપ્રમત્ત જીવ વિષેનું કથન કરાયું છે તે અહીં લાગુ પાડવાનું નથી. (तेउलेमस्स पम्हलेसम्स सुकलेसरस जहा ओहिया जीवा नवर-सिद्धा न भाणियव्वा) तन्नोश्यावा वानु, ५वेश्यावाज वार्नु भने शुसोश्याવાળાં જીવોનું વક્તવ્ય સામાન્ય જીવસૂત્રની જેમ જ સમજવું. પણ તેમાં વિશેષતા એ બાબતમાં રહી છે કે તે જેતેશ્યા આદિ કથનમાં સિદ્ધ જીવની ગણતરી કરવી જોઈએ નહીં.
ટીકાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા વીસ દંડકમાં આત્મારંભ આદિન નિરૂપણ કર્યું છે–સૌથી પહેલો પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ એ પૂછયો છે કે નારક છ આત્મારંભી છે? કે પરારંભી છે? કે ઉભયારંભી છે? કે અનારંભી છે? એ પ્રશ્ન અને મહાવીરસ્વામી દ્વારા અપાયેલે જવાબ સહેલાઈથી સમજી શકાય તેમ છે. વળી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! આપ એવું
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧