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________________ २९४ भगवतीसूत्रे निर्जरयन्ति । एवं मनुष्याणामपि, नवरम् आभोगनिर्वर्त्तितो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तन उत्कृष्टेनाष्टमभक्तेन श्रोत्रेन्द्रिय विमात्रतया भूयो भूयः परिणमन्ति शेषं यथा चतुरिन्द्रियाणां तथैव यावत् निर्जरयन्ति ॥ सू०२२ ॥ "" टीका - श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानांस्थित्यादिकमुपवर्ण्य साम्प्रतं पञ्चेन्द्रियजीवानां स्थित्यादिकं प्रदर्शयितुमाह – 'पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं' इत्यादि । चउरिंदियाणं जाव नो अचलियं कम्मं णिज्जर्रेति ) शेष समस्त कथन चार इन्द्रियवाले " जीवों की तरह समझना चाहिए " और वे अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं, मात्र चलित कर्म की ही निर्जरा करते हैं " वहाँ तक का कथन चार इन्द्रियवाले जीवों की तरह समझना चाहिए । ( एवं मणुस्साण वि) मनुष्यों के संबंध में भी इसी तरह समझा जाए। (णवरं ) मनुष्य में यह विशेषता है कि (आभोगनिव्वत्तिए जहणेणं अंतोमुहुतेणं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स) उनका आभोगनिवर्तित आहार कम से कम अन्तर्मुहूर्त के बाद और ज्यादा से ज्यादा तीन दिन के बाद होता है। ( सो इंदिय वेमायसाभुज्जो भुज्जो परिणमंति) उनके द्वारा आहार रूपसे ग्रहण किए गए पुद्गल विषममात्रा से श्रोत्रेन्द्रिय रूप में लगातार परिणमित होते रहते हैं। ( सेसं जहा चउरिदियाणं तहेव जाव निज्जरेंति ) शेष समस्त कथन वारइन्द्रियवाले जीवों की तरह समझा जाए, और वह कथन 46 यावत् निज्जरेंति " सूत्र तक इस तरह ही समझना चाहिए । जहा चउरिंदियाणं जाव नो अचलिये कम्मं णिज्जरेंति) माडीनुं समस्त उथन ચતુરિન્દ્રિય જીવો પ્રમાણે જ સમજવું. અને “તેઓ અચલિત કર્મની નિર્જરા કરતા નથી, ચલિત કર્મોની નિરા કરે છે” ત્યાં સુધીનું કથન ચતુરિન્દ્રિય लवो प्रमाणे ४ समभवु. ( एवं मणुस्साण वि.) मनुष्योना सभधभां या मेन 'प्रमाणे समन्न्वु. (णवर) मनुष्यमां विशेषता मे छे ( आभोगनिव्वत्तिए जहणेण अंतोमुहुस्तेणं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तरस) तेभनी आलोगनिवर्तित महार આછામાં ઓછે અન્તર્મુહૂર્ત પછી અને વધારેમાં વધારે ત્રણ દિવસ પછી थाय छे. (सोइंदिय वेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति) तेभना द्वारा भाडार३ये ગ્રહણ કરાયેલાં પુદ્ગલો વિષમ માત્રાએ શ્રોત્રેન્દ્રિયરૂપે વારવાર પરિણમતાં રહે છે. (सेस जहा चरिंदियाणं तहेव जाव निज्जरे ति) गाडीनुं समस्त उथन यतुरिन्द्रिय જીવોની જેમ સમજવું–અને તે કથન ' यावत् निज्जरेति " सूत्र सुधी मे પ્રમાણે જ સમજવું. 66 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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