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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. १ उ.१ सू० २० पृथिवीकायिकाद्याहारनिरूपणम् २७७ माहारे पृच्छा अनाभोगनिवर्तितस्ततथैव, तत्रयोऽसौ आभोगनिवर्तितः सोऽसंख्येय सामयिक आन्तमौहूर्तिको विमात्रया आहारार्थः समुत्पद्यते, शेषं तथैव यावदवास के विषय में विमात्रा से उच्छ्वास होता है ऐसा कहना चाहिये (बेइंदियाणं आहारेपुच्छा) इन दो इन्द्रिय जीवों का आहार कैसा होता है इस प्रकारसे इनके आहार के विषय में प्रश्न पहले की तरह करना चाहिये-अर्थात् हे भदन्त ! दो इन्द्रिय जीव क्या आहारार्थी होते हैं ? ऐसा प्रश्न करना चाहिये और उसका " हां होते हैं" इस प्रकार से उत्तर देना चाहिये। (अणाभोग निव्वत्तिए तहेव ) अनाभोगनिवर्तित आहार पूर्वकी तरह ही होता है-अर्थात् दो इन्द्रिय जीवोंका आहार अनामोगनिवर्तित और आभोगनिवर्तित दोनों प्रकारका होता है। इनमें जो अनाभोगनिवर्तित होता है वह तो नारकजीवोंकी तरहसे होता है ऐसा जानना चाहिये । (तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए) तथा जो आभोगनिवर्तित आहार होता है (से णं असंखेज समइए अंतोमुहुत्तिए) वह असंख्यात समयवाले अन्तर्मुहूर्त में होता है । यह अन्तर्मुहूर्तरूप समय यहां (वेमायाए ) विमात्रा से लिया गया है । (आहारट्टेसमुप्पजह) इस तरह दो इन्द्रिय जीवों के आभोगनिवर्तित आहार की अभिलाषा विमात्रा से असंख्यात समयवाले अन्तर्मुहूर्त में होती है। (सेसं तहेव जाव अर्णतभागं आसायंति ) इसके सिवाय बाकी का અને આહાર કે હોય છે તે પ્રકારનો પ્રશ્ન પૂર્વોક્ત જીવની જેમ ઉદ્ભવ જોઈએ. એટલે કે આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછવો જોઈએ-હે ભદન્ત દ્વીન્દ્રિય જીવોને આહારની ઈચ્છા થાય છે ખરી? અને તેનો એ જવાબ મળવે જોઈએ કેड, तेभने माडानी छ। थाय छे. (अणाभोग निव्वत्तिए तहेव) मनाला નિવર્તિત આહાર આગળ બતાવ્યા પ્રમાણે થાય છે. એટલે કે દ્વીન્દ્રિય જીવો. આભેગનિવર્તિત અને અનાગનિવર્તિત, એ બન્ને પ્રકારને આહાર લે છે. તેમને જે અનાગનિવર્તિત આહાર હોય છે તે નારક જીના અનાભોગनिवतित मा२नी म. २८ थाय छे. (तत्थणं जे से आभोगनिव्वत्तिए) तथा मालागानिवर्तित मा.२ सय छे ते (सेणं असंखेज्ज समइए अंतो मुहुत्तिए) અસંખ્યાત સમયવાળા અન્તમુહૂર્તમાં લેવાય છે. તે અન્તર્મુહૂર્તરૂપ સમય मही (वेमायाए) विभात्राथी पाये! छे (आहारट्टे समुप्पज्जइ) २मा रीतीन्द्रिय જીવોને આભેગનિવર્તિત આહારની ઈચ્છા વિમાત્રાથી અસંખ્યાત સમયવાળા मन्तभुतभा थाय छे. ( सेसं तहेव जाव अणंतभागं आसायंति) 21 सिवायर्नु
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧