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भगवतीसूत्रे ___ अथवा-" चलमाणे चलिए" इत्यादिपदेषु कर्मपदाभावात् चलनादीनि सामान्यत एव व्याख्यातव्यानि, न तु कर्मघटिततया, तथाहि-"चलमाणे चलिए" इत्यत्र चलनमस्थिरत्वं वस्तूनामुत्पादः उत्पत्तिः। “उदीरिज्जमाणे उदीरिए" उदीयमाणं उदीरितमित्यत्रोदीरणं स्थिरस्य पदार्थस्य प्रेरणरूपं, तदपि चलनस्वरूपमेव । “ वेइज्जमाणे वेइए" व्येजमानं वेजनम् , इत्यत्र व्येजमान कम्पमानम् , वेजनं कम्पनमपि तद्रूपतयोत्पाद एव । 'पहिज्जमाणे पहीणे' प्रहीयमाणं महीणमित्यत्र प्रहीणं अभ्रष्टं प्रपतितमिति यावत् , तथा च पहाणमपि चलनरूपमेव, तथा च गत्यर्थत्वात् चलनादीनां सर्वेषां समानार्थत्वं भवति, तेन च चलनादीनि चलनत्वादिपर्यायेणोत्पन्नत्वस्वरूपपक्षस्य प्रतिपादकानि । पदों में कर्मपद का तो अभाव है, इस कारण कर्मपरक इनका व्याख्यान न करके सामान्यरूप से ही इनका व्याख्यान करना चाहिये, जो इस प्रकार से है-“चलमाणे चलिए" इस सूत्र में चलन-शब्द का अर्थ
अस्थिरत्व-वस्तुओं का उत्पाद-उत्पत्ति है । " उदीरिजमाणे उदीरिए" इसमें उदीरणा का अर्थ स्थिर पदार्थ का प्रेरणरूप है, और यह प्रेरण चलनस्वरूप ही है । " वेइज्जमाणे वेइए" इस सूत्र में " वेइज्जमाण" पद की संस्कृत छाया "व्येजमान" भी होती है। व्येजमान शब्द का अर्थ है कंपमान । जो कंप रहा है वह कंप चुका, ऐसा इस मूत्र काअर्थ होता है। कंपन भी स्वस्वरूप की अपेक्षा उत्पाद ही है । “पहिजमाणे पहीणे" मूत्र में प्रहीण का अर्थ प्रभ्रष्ट-प्रपतित-ऐसा है, जो पतित हो रहा है वह पतित हो चुका, अर्थात् जो गिर रहा है-पड रहा है-वह गिर चुका-पड चुका । इस तरह प्रहाण भी चलनरूप ही है। तथा गत्यर्थक होने से वे सब चलनादिक चार पद समानार्थक हैं। इस कारण તે અભાવ છે. તે કારણે કર્મવિષયક તેનું વ્યાખ્યાન ન કરતાં સામાન્યરૂપે જ तेनु व्याज्यान ४२वुन. ते व्याभ्यान मा प्रमाणे छ-" चलमाणे चलिए" सूत्रमा 'यसन' शहना अर्थ मस्थिरत्व-वस्तुमानी उत्पत्ति छ. "उदीरिज्जमाणे उदीरिए" पहमा उही२४ाने। म स्थि२ ५४ार्थना २४३५ छे. मन त प्रेरण! यसनस्व३५०४ छ. “वेइज्जमाणे वेइए" सूत्रमा ‘ वेइज्जमाण' ५४नी संस्कृत छाया "व्येजमान" थाय छे. व्येजमान मेटले ४५मान. प. २युं छे ते पी यूज्यु, એવો આ સૂત્રને અર્થ થાય છે. કંપન પણ સ્વસ્વરૂપની અપેક્ષાએ ઉત્પાદજ છે. “पहिज्जमाणे पहीणे" सूत्रमा प्रडी 'नो मथ 'अब्रट'-पतित छ.२ પડી રહ્યું છે તે પડી ચૂકયું. આ રીતે ‘પ્રહણ” પણ ચલનરૂપ જ છે. અને ચલનાદિક આ ચાર પદે ગતિવાચક હોવાથી સમાનાર્થક છે. આ કારણથી તે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧