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________________ ९५५ भावबोधिनी टीका. नारकादीनामवगाहनानिरूपणम् प्रमाण है और बादर वनस्पति काय की अपेक्षा से कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण है। एवं जहा प्रोगाहणसठाणे ओरालियपमाणं तहा निरवसेस) एवं यथा अवगाहना संस्थानम् औदारिकप्रमाणं तथा निरव शेषम्-जिस तरह औदारिक शरीर के अवगाहना प्रमाण कहा है उसी प्रकार औदारिक शरीर के संस्थान आदि के विषय में भी प्रज्ञापना सूत्रके २१ वें पद से जान लेना चाहिये। प्रज्ञापना पद से कहा तक जानना ? इसके विषय में सूत्रकार कहते हैं-(एवंजाब मणुस्सेत्तिउकोसेणं तिण्णि गाउयाई) अर्थात्-युगलिक मनुष्य की अपेक्षा उत्कर्ष से जो मनुष्य के शरीर की अवगाहना तीन कोशकी कही गयी हैं वहाँ तक के प्रज्ञापना के सभी पद यहां पर भी ले लेने चाहिये । (कइविहेणं भंते ! वेउव्वियः सरीरे पण्णत्त) कतिविधं खलु भदन्त ! वैक्रिय शरीरं प्रज्ञप्तम्-हे भदंत ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? (गोयमा दुविहे पण्णत्ते) हे गौतम ! द्विविधं प्रज्ञप्तम्-हे गौतम । वैक्रियशरीर दो प्रकार का कहा गया है !(एगेंदिय वेउब्वियसरीरे य, पचिंदियवेउब्विय सरारे य) एकेन्द्रियवैक्रियशरीरश्च, पञ्चेन्द्रियवैकियशरीरश्च-एकेन्द्रियवैक्रिय शरीर और दसरा पंचेन्द्रियवैक्रिय शरीर । (एवं जाय सणंकमारे आढत्तं जाव अणुत्तराणं भवधारणिजा जाव ते सिं रयणी रयणी परिहायइ) एवं यावत् सनत्कुमारे પ્રમાણ છે અને બાદરવનસપતિકાયની અપેક્ષાએ એક હજાર જન પ્રમાણથી થોડી पधारे छ. (एवं जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियपमाणंतहा निरवसेसं) एवं यथा अवगाहनासंस्थानम् औदारिकप्रमाणं तथा निरवशेषम्-२ रीते मllરિક શરીરની અવગાહનાનું પ્રમાણ કહ્યું છે એ જ પ્રમાણે ઔદારિક શરીરનાં સંસ્થાન આદિના વિષયમાં પણ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ૨૧ એકવીસમાં પદથી વર્ણન સમજી લેવાનું છે. પ્રજ્ઞાપના પદથી કયાં સુધી સમજવું ? તે તે વિષયમાં સૂત્રકાર ४ छ -(एवं जाव मणुस्सेत्ति उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाइं) मेट है युगલિક મનુષ્યની અપેક્ષાએ મનુષ્ય શરીરની અવગાહના વધારેમાં વધારે ત્રણ કોશની ४ी छे त्या सुधीनां प्रज्ञापनानां ५५i पह! महा ५ देवानां छ. ( कइविहेणं भंते ! वेउब्वियसरीरे पण्णत्ते) कतिविधं खलु भदन्त ! क्रियशरीरं प्रज्ञप्तम्-मत ! वैठियशश 21 प्रानi ? ( गोयमा दविहे पण्णत्ते) . गौतम ! वैठिय शरीर मे ४२ना ४i छ. (एगेंदियवेउब्वियसरीरे य, पंचिंदियवेउव्वियसरीरे य) एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरञ्च, पञ्चेन्द्रिय वैक्रिय शरीरञ्च-(१) डेन्द्रिय वैश्यिशश२ मने (२) ५येन्द्रिय वैश्यिशरी२. (एवं जाव सर्णकुमारे आढत्तं जावअणुत्तराणंभवधारणिज्जा जाव तेसिं रयणीपरिहायइ) શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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