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________________ ९२६ समवायाङ्गसूत्रे उपघात से रहित हैं ( सप्पभा) सप्रभाणि प्रभासहित हैं, (समरीया) समरीचोनि- किरण सहित हैं (सउज्जोया) सोद्योतानि - प्राकाशसहित हैं, (पासाईया) प्रासादीयानि - प्रासादीय हैं, (दरिस णिज्जा) दर्शनीयानि - दर्शनीय हैं (अभिरुबा) अभिरूपाणि - अभिरूप हैं (पडिरुवा) प्रतिरूपाणि-प्रतिरूप हैं, इन पदों का अर्थ पहिले लिखा गया है वहां से देख लेना । अब गौतम स्वामी महावीर प्रभु से यह पूछते हैं कि प्रत्येक कल्प में कितनेर विमानावास हैं - ( सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णत्ता) सौधर्मे खलु भदन्त ! कल्पे कियन्तः विमानावासाः प्रज्ञप्ताःहे भदन्त ! सौधर्मकल्प में कितने विमानावास कहे गये है ? उत्तर - (गोयमा) हे गौतम! (बत्ती विमाणावाससय सहस्सा पण्णत्ता) द्वात्रिंशत् विम नावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि - सौधर्मकल्प में बतीस ३२ लाख विमानावास कहे गये है ( एवं ईमाणेसु अट्ठावीसं बारस, अटु चत्तारि, एयाई सय सह(साई) एव ईशानेषु अष्टाविंशतिः द्वादशाष्ट चत्वारि एतानि शतसहस्राणि - इसी तरह ईशानकल्प में अट्ठावीस लाख, तीसरे सनत्कुमार कल्प में चतुर्थ माहेन्द्र देवलोक में आउ८ लाख, पांचवें ब्रह्मलोक में चार४ लाख, (पणासं चत्तालीस छएयाई सहस्साई ) पञ्चाशत् चत्वारिंतेमनी अंति अपरा प्रहारना छान ! उपधातथी रहित हे. (सप्पभा) सप्रभाणि तेथे । प्रलायुक्त छे, ( समरीया) समरीचीनि-थी युक्त छे, (सउज्जोपा) सोद्योगनि-प्रशित छे, (पासाईया) प्रासाहीय छे, (दरिसणिज्जा) दर्शनीय छे, (अभिरुवा) अभि३५ छे, ( पडिब्बा ) प्रति३प छे, मा यारे પદ્માના અર્થ આગળ આવી गया छे. बारह लाख. હવે ગૌતમસ્વામી મહાલીર પ્રભુને પૂછે છે કે પ્રત્યેક કલ્પમાં કેટલાં વિમાનાवास छे ? (सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता) सौधर्मे खलु भदन्त ! कल्पे कियन्तः विमानावासाः प्रज्ञप्ताः - डे लहन्त ! सौधर्म उपमांडेंट विभानावासी छे ? उत्तर- ( गोयमा !) हे लहन्त ! (बत्तीसं विमाणावासय सहस्सा पण्णत्ता ) द्वात्रिंशत् विमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि - - सौधर्भ हेवलाभां 3२ अत्रीस साथ विभानावास उछे छे. ( एवं ईसाणे अट्ठावीसं बारस, अट्ठ, चत्तारि, एयाई सरसहस्साई ) एवं ईशानेषु अष्टाविंशतिः द्वादशाष्टचत्वारि एतानि शतसहस्राणि - मे ४ रीते ઇશાન૫માં ૨૮ અઠયાવીસ લાખ, ત્રીજા સનત્કુમાર દેવલેાકમાં ખારલાખ, ચાથા માહેન્દ્રદેવલાકમાં આઠ લાખ, પાંચમા બ્રહ્મલાક કલ્પમાં याराम (पण्णास શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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