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________________ भावबोधिनी टीका. राशिद्वयस्वरूपनिरूपणम् ९०७ रमांसानि, शरीरान्तर्गतधातवः, एतेषां यः 'चिक्खिल्ल' कर्दमस्तेन लिप्तमू-अनुलेपनतलं लेपनीयस्थानं यत्र ते तयोक्ताः, तथा असुइवीसा' अशुचिवित्राः अशुचयो विस्रा: आमगन्धयुक्ताश्च, अत एव 'परमदुब्भिगंधा: अतिशयदुर्गन्धयुक्ताः, तथा'काऊ अगणिवण्णाभा' कृष्णाग्निवर्णामाः-लोहेषु धमायमानेषु अग्निर्यादृशवों भवति स कृष्णाग्निवर्णस्तस्य आभा इव आभा येषु ते तथोक्ताः-परमकृष्ण वर्णा इत्यर्थः, तथा-'कक्कडफासा' कर्कशः कठिनः स्पर्शी येषां ते तथोक्ताः, अत एव 'दुरहियासा' दुरध्यासा:-दुः-दुःखावहः-अध्यासा=स्थितियत्र ते तथोक्ताः, सन्ति । अत एव एते 'निरया' नरकाः 'अमुभा' अशुभाः, तथा एषु 'निरएमु' नरकेषु 'असुभाओ वेयणाओ' अशुभावेदना भवन्ति । 'एवं सत्त वि भाणियव्वाओ' एवं सप्तापि भणितव्याः-रत्नप्रभामादायैच सप्त प्रथिव्यो भवन्ति, इति रत्नप्रभावदेव इतरा अपि पृथिव्यो भणितव्याः । 'ज' यत्-यद् भाग मेद, वसा, पूय-पीच, रुधिर और मांस की कीचड से लिप्त रहा करता है। "असुइवीसा" ये सब नरकावास अशुचि एवं कच्चे पकाये हुए चमडे की जैसी गंध वाले होते हैं। अत एव "परमभिगंधा' अत्यंत दुर्गध संपन्न रहा करते हैं। तथा 'काऊ अगणिवण्णाभा' इनकी आमा कृष्णाग्नि के वर्ण जैसी होती है। लौह के तपाने पर अग्नि जिसवर्ण की होती है वह कृष्णाग्नि वर्ण कहलाता है। अर्थात् ये नरकावास परम कृष्णवर्णवाले होते हैं। कक्कड. फासा' इनका स्पर्श कठोर होता है। अत एव 'दुरहिवासा' इनमें स्थिति दुःखप्रद ही होती है। इसीलिये 'असुभा' ये नरक अशुभ माने गये हैं। इनमें जो वेदनाएँ होती हैं वे महा अशुभ होती हैं। इसी तरह से रत्नप्रभाएथिवा से लेकर तमस्तमःप्रभा पृथिवीतक-सातों नरकावासों के विषयमें जानना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार रत्नप्रभापृथिवी का वर्णन किया है उसी प्रकार पाव, साडी भने मांसन 25थी छायो २३ छ. 'असुइ वीसा' ये 4 न२॥ पास अस्व.२०, अने ५४वेला या यामानावी वाणा डाय छ तेथी परमटभिगंधा' ते २४वासे। मयत दुधा डाय छे. तथा 'काऊ अगणिवष्णाभो' सिना पनी तमनी माला डाय छे खेदाने तviqाथी सिर વણ ધારણ કરે છે તે વર્ણને કૃષ્ણાગ્નિ વણ કહે છે. એટલે કે તે નરકાવાસી અતિशय ा ना डाय छे. तथा 'ककडफासा' भने। २५श ठोर हाय छे. तेथी 'दरहिवासा' तेमा २३:५४ ५४ ५ छ तेथी 21 न२ने 'असभा' અશુભ કહેલ છે. તેમાં જે વેદનાઓ અનુભવાય છે તે અતિશય અશુભ હોય છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વી સુધીની સાતે નરકમાં એવી જ પરિસ્થિતિ હોય છે, એટલે કે જે પ્રકારનું રત્નપ્રભા પૃથ્વીનું વર્ણન કર્યું છે એ શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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