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________________ ८७८ समवायाङ्गसूत्रे गतिरूप संसार अटवी में (अणुपरियहिस्संति) अनुपर्यटिष्यन्ति-परिभ्रमण करेंगे। (इच्चेइयं दुवालसंग) इत्येतं द्वादशांगं गणिपिटकं-इस द्वादशांगरूप गणिपिटक की (अतीत काले) अतीते काले-भूतकाल में (आणाए आराहिता) आज्ञया आराव्य-आज्ञा की आराधना करके (अणंत्ता जीवा) अनन्ता जीवा:अनन्त जीव (चाउरंत-संसारकंतारं) चातुरन्तसंसारकान्तारं-चारगतिरूप संसार अटवी से (बीइ वइंसु) व्यत्यव्रजन-पार हो गये हैं। (एवं पड़प्प ण्णेऽवि, एवं-अणागएऽवि) एवं प्रत्युत्पन्नेऽपि, एवं अनागतेऽपि-इसी तरह जो मनुष्य इस द्वादशांगरूप गणिपिरक की आज्ञा का आराधन कर रहे हैं और भविष्य में आराधन करेंगे वे इस चातुरन्त संसाररूप अटवी से पार हो रहे हैं और पार हो जावेंगे। (दुवालसंगे णं गणिपिडगे)द्वादशांगः खलु गणिपिटकः-द्वादशांगरूप गणिपिटक (ण कयावि णत्थि) न कदापिनास्ति-पहिले कभी भी नहीं था ऐसी बात नहीं है, (ण कयावि णासी) न कदापि नासीत-कभी नहीं था ऐसी बात नहीं है अर्थात पहिले भी था, (ण कयाविण भविस्सइ) न कदापि न भविष्यति-भविष्यत्काल में नहीं रहेगा ऐसी बात नहीं है अर्थात भविष्य में भी हमेशा रहेगा। इसी अर्थ को फिर कहते है-(भुविं च) अभूच्च-यह गणिपिटक पहिले भी था याति३५ संसा२४ाननमा (अणुपरियटिस्संति) अनुपर्यटिष्यन्ति-५ २भ्रम ४२शे, (इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं) इत्येतं द्वादशांगं गणिपिटकं--मा ali॥३५ ५टनी (आणाए आराहिता) आज्ञया आराध्य-माज्ञानी माराधना ४शन (अतीते काले) भूतimi (अणंता जीवा) अनंताजीवाः मनन्त वो ( चाउरंतसंसारकंतारं ) चातुरन्तसंसारकान्तारं-याति३५ संसार २५८वीने (वीइवइंसु) व्यत्यव्रजन्-पा२ ४२री गया छे (एवं पडुप्पण्णेऽवि, एवं अणागएऽवि) एवं प्रत्युत्पन्नेऽपि, एवं अनागतेऽपि-मने २ मनुष्यो વર્તમાનકાળમાં આ દ્વાદશાંગરૂપ ગણિપિટકની આરાધના કરે છે અને ભવિષ્યમાં આરાધના કરશે તેઓ ચારગતિરૂપ આ સંસાર અટવીને પાર કરી રહ્યાં છે અને पा२ ४२२. (दुवालसंगे गं गणिपिडगे) द्वादशांगः खलु गणिपिटक -दाह. शा॥३५ पिट (ण कयावि णत्थि) न कदापि नास्ति-५i xही ५ न तुमेवी पात नथी, (ण कयावि णासी) न कदापि नासीत्-५i ४याश्य न तु मेवी वात नथी थेट 3 ते ५i पए तुः, (ण कयावि ण भविस्सइ)न कदापि न भविष्यति-भविष्यमा तेनु मस्तित्व नही डाय सेम પણ નથી એટલે કે ભવિષ્યમાં પણ અવશ્ય રહેશે જ, એજ અર્થને ફરી સૂત્રકાર ४ छ-(भुवि च) अभूच्च-24 पट४ पडेट ५५ तुः, (भइय) अस्ति च શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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