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________________ भावबोधिनी टीका. सप्तदशसमवाये जङ्घाचारणादीनां गत्यादिनिरूपणम् २२३ न्तिकमरणम, नारकाद्यायुष्कतया यानि कर्मदलिकान्यनुभूय मृतः, अनन्तरं न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति, ईदृशं यन्मरणं तत् द्रव्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वा. दात्यन्तिकमुच्यते । 'वलायमरणे' वलन्मरणम्, संयमयोगेभ्यो वलतां प्रचलतां भग्नव्रतपरिणतीनां वतिनाम्, अथवा वलतां बुभुक्षापरिगतत्वेन बलबलायमानानां यन्मरणम् तद् वलन्मरणम् । 'वसट्टमरणे' वार्तमरणम्-वशेन इन्द्रियविषयाक. र्षणेन ऋतः पीडितः वशातः दीपशिखारूपसमाकृष्टशलभवद् विषयाधीनाः, तेषां यन्मरणं तदशामरणम् । 'अंतोसल्लमरणे' अन्तः शल्यमरणम् अन्तः शल्यस्य द्रव्यतोऽनुद्धततीरादेर्भावतः सातिचारस्य यन्मरणं तदन्तःशल्यमरणम्, आदि आयुष्करूप से जिन कर्म दलिकों का अनुभव करके जीव मर जाता है-उस पर्याय के कर्मदलिकों को छोड देता है और बाद में फिर से वह उन कमें दलिकों का अनुभव नहीं करता है, अर्थात् पूर्व में प्राप्त आयुकर्म के दलिकों को पुनः वह प्राप्त नहीं करता है और मर जाता है अगृहीत आयुकर्म के दलिकों को ही ग्रहण कर उस पर्याय से छूट जाता है। तो इस अपेक्षा उसका वह मरण आत्यंन्तिक मरण है ३। वलन्मरण-संयमयोगों से चलित हुए अर्थात् भग्नव्रतपरिणतवाले ऐसे साधु व्रतीजनों का अथवा भूख से युक्त होने के कारण बलबलायमान व्यक्तियों का जो मरण होता है वह वलन्मरण है।४। वार्तमरण-इन्द्रियों के विषयों के आकर्षण से पीडित हुए व्यक्तियों का दीपशिखा के रूप से समाकृष्ट पतंग की तरह जो मरण होता है उसका नाम वशात्तमरण है।६। अन्तः शल्यमरण-जिस प्रकार द्रव्यरूप तीर आदि के शरीर के भीतर घुसने पर प्राणियों का मरण हो जाता है उसी प्रकार अतिचाररूप भावशल्य કર્મલિકોને અનુભવ કરીને જીવ મરી જાય છે તે પર્યાયના કર્મદાલિકોને છોડી દે છે. અને પછી ફરીથી તે કર્મલિકોને તે અનુભવ કરતું નથી એટલે કે પૂર્વ પ્રાપ્ત કરેલ આયુકર્મના દલિકોને ફરીથી તે પ્રાપ્ત કરતા નથી અને મરી જાય છે. અગૃહીત આયુકર્મના દલિકને જ ગ્રહણ કરીને તે પર્યાયથી છુટી જાય છે. તે તે अपेक्षा तेनु भरण आत्यंतिक मरण ४३वाय छे बलन्मरण-सयम योगथी यक्षित થયેલ એટલે કે ભગ્નત્રત પરિણાવાળા સાધુ ત્રીજનાનું અથવા ભૂખથી યુકત डावाने पर पता भारसानु २ भ२५ हाय छ तेने बलन्मरण छ.(५)वशातमरण इन्द्रियाना विषयाना माथी पीडित ०५तिनु दीवानी न्योतिथी मा. वाथी ५तजियानी मरे भ२६ थाय छे ते भरने वशार्तमरण ४३ छे. (6) अन्तः शल्यमरण म द्रव्य३५ ती२ मा शस्य शरीरनी मह२ धुसी पाथी પ્રાણીઓનું મરણ થાય છે, તેમ અતિચાર રૂ૫ ભાવશલ્યના સદુભાવમાં (હાજરીમાં) શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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