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भावबोधिनी टीका. त्रयोदशसमवाये त्रयोदशक्रियास्थानादि निरूपणम् १६९ वियाजन सीऽनथदण्डो द्वितीयं क्रियास्थानम् । तथा 'हिंसादंडे' हिसादण्ड:हिंसामाप्रित्य यो दण्डो हिंसनं, अर्थात् 'अयं मामहिंसीत, हिनस्ति, हिसिष्यति वेति मनसि विधाय प्रतिपक्षिणो यो वधः स हिंसादण्डस्तृतीयं क्रियास्थानम् । तथा 'अकम्हादंडे' अकस्माददण्ड:-अन्यवधाय प्रवृत्तस्य अन्यस्य हननम् । इतिचतुर्थ क्रियास्थानम् । तथा 'दहिविपरिआसियादंडे' दृष्टि विपर्यासिकादण्ड:विपर्यासो विपर्यासिका, दृष्टेविपर्यासिका मतिभ्रान्तता, तया निमित्तभूतया यो दण्ड: माणिवधः स दृष्टि विपर्यासिकादण्डः, मित्रादीनाममित्रादिबुद्धया हननमित्यर्थः। इति पश्चमम् । तथा-'मुसावायवत्तिए' मृषावादप्रत्ययम्, मृषावादः =प्रात्मपरोभयार्थमसत्यवचनम्, स एव प्रत्ययाकारणं यस्य तत् मृषावादप्रत्ययम् । षष्टं क्रियास्थानम् । तथा 'आदिन्नादाणवत्तिए' अदत्तादान प्रत्ययम, अदत्तादानं चौर्य प्रत्ययः कारणं यस्य तत् । सप्तमं क्रियास्थानम् । तथा 'अज्झथिए' आध्यात्मिकम् अध्यात्म=मनः, तत्र भवम् आध्यात्मिकम् , बाह्यनिमित्तमनपेक्ष्यैव जाता है वह अर्थदंड है। प्रयोजन की अपेक्षा विना ही जो त्रस स्थावर आदि जीवों की हिंसा कर दी जाती है वह अनर्थदंड़२। इसने मेरी हिंसा की थी, यह मेरी हिंसा करता है अथवा यह मेरी हिंसा करेगा' इस प्रकार का विचार कर प्रतिपक्षी का जो वध कर दिया जाता है वह हिंसादंड है। अन्यजीव की हिंसा करने के लिये प्रवृत्त हुआ पुरुष अन्य प्राणी की हिंसा कर दे यह अकस्मात् दंड है४। मति की विपर्यासिता का निमित्त लेकर जो हिंसा हो जाती है वह दृष्टिविपर्यासिका दंड है। जैसे मित्र को अमित्र की बुद्धि से मार देना५। जिस का कारण मृषावाद हो वह मृषावादप्रत्यय है। जिस का कारण अदत्तादान हो वह अदत्तादान प्रत्यय है। बाह्यनिमित्त की अपेक्षा किये विना ही जो शोक किया जाता है वह माछ; तेने 'अर्थदंड' हे छ, (२) र ५॥ ततना प्रयास विना त्रस, स्थावर माहियोनी रे सा राय छ तेन 'अनर्थदंड' हे छ. (3) " म व्यरितये મારી હિંસા કરી હતી, આ મારી હિંસા કરે છે, અથવા આ મારી હિંસા કરશે सेवो पियार ४शन प्रतिपक्षी (पारोधी) नारे १५ ४२शय ते "हिंसादंड" छे. (૪) એક જીવની હિંસા કરવાને તૈયાર થયેલ પુરુષ અન્ય જીવની હિંસા કરી નાખે છે. તેને 'अकस्मात दंड' ४ छ (५) मतिनी विपर्यासताने ४२ सि5 Mय छे. तर 'दृष्टिविपर्यासिका दंड' ५ छ. म ३ भित्रने भित्र भी भारपो. (६) सानु ४।२९ भूषापा होय साने "मृषावादप्रत्यय" हे छे. (७) रे डिसानु ४॥२९॥ महत्तहान हेय छे ते डिसाने "अदत्तादानप्रत्यय" ४ . [८] मानिभित्तनी अपेक्षा या विना १ २ ४ मा राय छतेने 'आध्यात्मिक
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર