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________________ भावबोधिनी टीका. आयुर्वन्धस्वरूपनिरूपणम् १०२५ उद्वर्तना दण्डकश्च-इसी तरह से उद्वर्त्तना दंडक भी भणितव्य है (नेरइ. याणं भंते! जाइनामनिहत्ताउयं कई आगरिसेहिं पगरंति) नैरइयिका खलु भदन्त ! जातिनामनिधत्तायुः कतिभिराकः प्रकुर्वन्ति ?) हे भदंत ! नारक जीव जातिनामनिधत्तायु का बंध कितने आकर्षों द्वारा करते हैं (गोयमा ! सिय१ सिय२ सिय३ सिय४ सिय५ सिय६ सिय७ सिय८ अट्टहिं, णो चेव णं णवहिं) हे गौतम ! स्यात् १ स्यात्२ स्यात्३ स्यात्४ स्यात्५ स्यात्६ स्यात्७ स्यात्८ अष्टभिः नो चैव खलु नवभिः-उत्तर-हे गौतम! जिस प्रकार से गाय पानी पीती हुई भयवशात् पुनः पुनः फूत्कार करती है उसी तरह जीव तीव्र आयुबंध के अध्यवसाय से एकवार ही जाति. नामनिधत्तायु का बंध करता है, मन्द आयुबंध के अध्यवसाय से दो आकर्षों से, मन्दतर आयुबंध के अध्यबसाय से तीन आकर्षों से, मन्दतम आयुबंध के अध्यवसाय से चार, पांच, छह, सात और आठ आकर्षों से जातिनामनिधत्तायु का बंध करता है। नौ आकर्षो से नहीं। कर्म पुदगलों का उपादान-ग्रहण करना इसका नाम आकर्ष है। (एवं सेसाण वि आउगाणि जाव वेमाणियत्ति) एवं शेषाण्यपि आयुषि यावद् वैमानिका इतिइसी तरह से गतिनामनिधत्तायु आदि जो पांच प्रकार के बंध हैं उन्हें से प्रमाणे दत्त ना ५ ५९५ सम देवा Mणे (नेरइयाणं भंते ! जाइनाम निहत्ताउय कइ आगरिसेहिं पगरंति ) नैरयिकाः खलु भदन्त ! जातिनाम निधतायुः कतिभिराकः प्रकुर्वन्ति ! ९ मत ! ना२४ीति . नाम नियत्तायुने। it eat | २॥ ४२ छ ? गोयमा ! सिय१ सियर सिय३ सिय४ सिय५ सिय६ सिय७ सिय८ अहि, णो चेव णं णवहिँ) हे गौतम ! स्यात् १ स्यात् स्यात्३ स्यात्४ स्यात्५ स्यात्७ स्यात्८ अष्टभि नो चैव खल नवभिः- गौतम! रेशते गाय पाणी पीतi पीतi भयवत् કુત્કાર કરે છે એ જ પ્રમાણે જીવ તીવ્ર આયુબ ધના અધ્યવસાયથી એકવાર જ જાતિનામ નિધત્તાયુનો બંધ કરે છે, મન્દ આયુબંધના અધ્યવસાયથી બે આકર્ષોથી, મન્દતર આયુર્વધના અધ્યવસાયથી ત્રણ આકર્ષોથી, મન્દતમ આયુબંધના અધ્યવસાયથી ચાર, પાંચ, છ, સાત, અને આઠ આકર્ષોથી જાતિના નિધત્તાયુનો બંધ કરે છે. નવ આકર્ષોથી કરતો નથી. કર્મ પુદ્ગલોને ગ્રહણ કરવા તેનું નામ “આકર્ષ” છે (एवं सेसाण बि अउगाणि जाव वेमाणियत्ति) एवं शेषाण्यपि आयूंषियावद वैमानिका इति-20 प्रभागतिनाम निघत्तायु माहिर पांय प्रा२ना બંધ છે તેમને નારકી જીવો આઠ આકર્ષોથી જ કરે છે, નવ આકર્ષોથી કરતા નથી. ૧૨૯ શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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