________________ "भाई ये चंद टके जो संयमके इकठे किये हैं, इस नाशवान् शरीर के लिये नहीं लुटाऊंगा" सचमुच धन्य थे आप जिन्होंने संयमरूपी टकोंकी संभालमें इस बहुमूल्य शरीरका बलिदान कर दिया। ___जंडियाला गुरु ( जिला अमृतसर ) की पावन भूमि गुरुदेव विराजे थे। रोग बढता जाता था, आहार घटता गया / मुंह के जख्म बढते गये। पानी पीना और सांस लेना कठिन हो गया / अन्तिम दिनोंकी वेदना इतनी भयंकर थी कि वर्णन करने कलमका दिल भी दहल उठता है / दर्शन करके हर आदमी का दिल भर आता था। किंतु बाहरे, उनकी अद्भुत सहनशीलता, शांति और मृदु-सौम्यता ! अन्तरात्मा पूर्णतया रोशन थी। उन्होंने अपनी गृत्तियों तथा प्रवृत्तियों को संक्षिप्त कर लिया था। हर समय आत्म समाधिका ही ध्यान रहता था / अन्तरात्माको साक्षीसे चौरासो लाख जीवयोनी और चतुर्विध श्री संघसे खमित-खमायना करके आत्मशुद्धिकी ओर अग्रसर हुए / प्रति संलेखना और संथारे की ओर ध्यान गया / शिष्यों से संथारा कराने को कहा। मौसमकी बडी गरमी और रोगकी भयंकरताको देख कर शिष्य साहस न कर सके / आखिरकार उस नरसिंहने अन्तिम दिन ता. 27 जून 1963 को स्वयं संथारा धारण कर लिया और समाधि पूर्वक अपनी महायात्राको सम्पन्न किया। गुरुदेवके स्मारक:___ गुरुदेवकी मुज्ञ-विज्ञ, सुविनीत शिष्य मंडलीमें कितना त्याग-वैराग्य, कितना आपसी स्नेह-प्रेम, कितनी गुरुभक्ति और आदर है। वास्तवमें सब मुनिराज पूर्ण समर्थ हैं / सुयोग्य हैं / गुरुदेवश्रीके स्मारक स्वरूप हैं। उनकी जीवन्त संस्थाएँ हैं। उनकी अनुपम कृति हैं / उनके दर्शन कर हृदय उल्लसित हो जाता है। श्रद्धा सुमनः गुरुदेयके जीवनका जहां से स्पर्श करें वहांसे एक मृदु तथा मधुर झंकार सी उठती हैं / शब्दों में किस प्रकार संजोयें ? क्या अथाह सागर कभी बांधा गया है ? फिर भी मनकी श्रद्धाको कुछ अकिंचन शब्द सुमनोंमें गूंथनेका प्रयत्न किया हैं। कोटि 2 चंदन: ऐसी विरल विमल विभूति, ज्ञानी-ध्यानी, त्यागी और तपस्वी महान आत्माको मेरे कोठि कोटि वंदन हैं। उनके श्री चरणोंका शरणा जन्म जन्मान्तरों तक प्राप्त हो। -महताबचंद चोरडिया दिल्ली श्री. स्थानांग सूत्र :04