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________________ ३७ सुघा टीका स्था०५ उ०२ सू०८ आम्रवादिनिरूपणम् टीका-पंच आसवदारा' इत्यादि आस्रवद्वाराणि-आम्रपणम्-आस्नया-जीवरूपे तडागे कर्मरूपजलस्य प्रवेशः तस्य द्वाराणीय द्वाराणि-उपायाः, तानि हिपंच संख्यकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा मिथ्यात्वम् असत्ये तत्वाध्यवसानरूपं पिपरोतश्रद्वानमित्यर्थ इति प्रथम स्थान १। अचिरतिः पापकर्मतोऽनितिः नित्रत्तेरभाषः २। प्रमादः-अनवधानता____ अनन्तर सूत्र में " जिनाज्ञा को माननेवाला जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है " ऐसा कहा गया है और जो जिनाज्ञा को नहीं मानता है वह जिनाज्ञाका विराधक होता है, जिनाज्ञाकी विराधना आस्रव रूप होती हैं । अतः अब मूत्रकार आत्रय द्वारों का और आस्त्रय द्वारों के रूकने रूप संवर द्वारों का तथा दण्ड रूप आस्रव विशेषोंका कथन करते हैं--"पंच आसवदारा पणत्ता" इत्यादि-- टीकार्य-मानव द्वार पांच कहे गये हैं, जैसे-मिथ्यात्व १, अविरति २, प्रमाद ३, कषाय ४ और योग ५। पांच संबर द्वार कहे गये हैं, जैसेसम्यक्त्व १, विरति २, अप्रमाद ३, अकषायिता ४ और अयोगिता ५ दण्ड पांच कहे गये हैं, जैसे-अर्थदण्ड १, अनर्थदण्क २, हिंसादण्ड ३, अकस्मात् दण्ड ४ और दृष्ठिविपर्यास दण्ड ५. __जीयरूप तालाब में कर्मरूप जलका जो प्रवेश है वह आस्रव है, इस आस्रव के द्वार जैसे जो द्वार हैं ये आस्रवद्वार हैं। आस्रयके आनेके जो उपाय कारण हैं वे पांच हैं, जैसे-मिथ्यात्य आदि अतत्त्वमें “જિનાજ્ઞાનું પાલન કરનારે જિનાજ્ઞાન વિરાધક થતું નથી, ” એવું આગળ કહેવામાં આવ્યું છે, જેઓ જિનાજ્ઞાને માનતા નથી તેઓ જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગણાય છે. જિનાજ્ઞાની વિરાધના આસ્રવ રૂપ હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર આસવદ્વાનું અને આઅને નિરેધ કરનારા સંવરદ્વારનું તથા દંડ રૂપ આસવિશેનું કથન કરે છે. 'पच आसवदारा पण्णत्ता" त्याह भय भासपा -(१) मिथ्यात्म, (२) मवि२ति, (3) प्रमा (४) पाय, अने (५) योस. पाय सव२६२ हां छ--(१) सभ्यत्य, (२) विति, (3) अप्रभात, (४) २५४ायिता माने (५) अयोगिता. पाय sai छे-(१) अर्थ3, (२) मन', (3) हिंसा, (४) २३४मात् ६ मने (५) हल्टि विपर्यास .. જીવ રૂ૫ તળાવમાં કર્મ રૂપ જળનો જે પ્રવેશ થાય છે, તેનું નામ આસવ છે. તે આસવના દ્વાર જેવાં જે દ્વાર છે તેમને આસવદ્વાર ५ . माला (8) न सामना नीचे प्रमाणे पाय ॥२२॥ -- श्री. स्थानांग सूत्र :०४
SR No.006312
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size42 MB
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