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________________ २४२ स्थानाङ्गसूत्रे अथ हेतोश्चातुर्विध्यमाह - 'हेऊवउबिहे' इत्यादि । हेतुः-हिनोति गमयति ज्ञेयमिति हेतुः साध्यनिरूपितव्याप्तिमान् अन्यथाऽनुपपत्ति लक्षणः यथा पर्वतो वह्निमान् धूमान्यथानुपपत्तेरिति, तदुक्तम्-" अन्यथाऽनुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्तदप्रसिद्धिसन्देहविपर्यासैस्तदाभता" ॥ १ ॥ अत्र श्लोकपूर्वार्द्धन हेतोर्लक्षणम् । अन्य प्रश्नों के उत्तर में भी ऐसाही समझना चाहिये जो प्रश्न किया गया है वही उत्तर रूपमें यहां प्रकट किया गया है। "हेऊ च उचिहे" हेतु चार प्रकारका कहा गयाहै-यापक१, स्थापकर, व्यंसक३ और लूषक४ जो ज्ञेयका गमक-चतानेवाला होताहै वह हेतुहै। यह हेतु अपने साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रूप व्याप्तिवाला है "माध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः" ऐसा हेतुका लक्षण कहा गया? जो अपने साध्यके साथ अविनाभाव संबन्धवाला होताहै वही हेतु होताहै यह हेतु अन्यथानुपपत्ति है लक्षण जिसका ऐसा होताहै यहां अन्यथा शब्दसे साध्य के विना लिया गयाहै और अनुपपत्ति शब्दसे हेतुका नहीं होना लिया गया है जैसे-" पर्वतोऽयं वह्निमान् धमान्यथानुपपत्तेः" यह पर्वत अग्निवालाहै क्योंकि धूमकी अन्यथा(अग्निके विना)अनुपपत्ति होताहै चिना अग्नि के धूम होता नहीं है, पर वहहै,इससे पर्वतमें अग्निहै यह बात प्रमाणित-अनुमित हो जातीहै यही बात-"अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणપ્રશ્નોના ઉત્તર વિષે પણ એવું સમજવું જોઈએ કે જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યું છે, તેને જ ઉત્તર રૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યો છે. "हेऊ चउव्विहे" अतुना नाये प्रमाणे यार ४.२ ४ -(१) या५४, (२) स्था५४, (3) व्यस अने (४) सूप. જે શેયને બતાવનાર હોય છે તેનું નામ હેતુ છે. આ હેતુ પિતાના साध्यनी साये अविनासा समय ३५ व्याशिवाणी डाय छे. “ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु " मे तुर्नु सक्षय :छ. ने पोताना सायनी સાથે અવિનાભાવ સંબંધ વાળો હોય છે એનું નામ જ હેતુ છે. તે હેતુ અન્યથાનપપત્તિ લક્ષણવાળ હોય છે. અહી “અન્યથા” પદ સાધ્ય વિનાનું વાચક છે અને “અનુ૫૫ત્તિ શબ્દ હેતુના અભાવને વાચક છે. એટલે साध्यन अमाय डाय तो तुनी ५४ मा ४ सय छे. सम-"पर्वतो. यम् वह्निमान् धूमान्यथानुपपत्तेः" " मा पति मनिपाणी, ४२६१ પમાડાની અન્યથા (અગ્નિ વગર) અનુપત્તિ જ હોવી જોઈએ. એટલે કે ધુમાડા વિના અગ્નિ લેતી નથી, ધૂમાડો છે એટલે અગ્નિ પણ હોવી જોઈએ, આ વાત त॥२॥ प्रभाशित-अनुमानित थ य छे. मे पात-" अन्यथानुपप श्री. स्थानांगसूत्र :03
SR No.006311
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages636
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size37 MB
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