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________________ सुधा टीका स्था०२ उ ४ सू० ४७ बुद्धमूढजीवस्वरूपनिरूपणम् ५२९ ___टीका-'दुविहा बोही' इत्यादि । बोघनं बोधिः-प्राप्तिः । सा द्विविधाज्ञानबोधिः, दर्शनबोधिश्चेति । तत्र ज्ञानबोधिः ज्ञानावरणक्षयोपशमप्रभवा ज्ञानप्राप्तिः। दर्शनबोधिः-दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्ना श्रद्धानप्राप्तिरिति १ । बोधिमन्तोबुद्धाः, तेऽपि द्विविधा:--ज्ञानबुद्धा दर्शनबुद्धाश्चेति । एते च धर्मत एवं । भिन्ना न धर्मिक्या, ज्ञानदर्शनयोरन्योन्याविनाभूतत्वादिति २ । एवं यथा बोधिर्बुद्धाश्च-द्विविधाः प्रोक्तास्तथा 'मोहो मूढाश्च' इत्यपि वाच्याः, आलापकश्चैवम् 'दुविहे मोहे पण्णत्ते तं जहाणाणमोहे चेव दंसणमोहे चेव । दुविहा मूढा पण्णत्ता तं जहा-णाणमूढ! चेव दंसणमूढा चेव इति । टीकार्थ-"योधनं बोधिः" के अनुसार बोधि शब्दका अर्थ प्राप्ति है यह बोधि दो प्रकार की कही गई है एक ज्ञानबोधि और दूसरी दर्शनबोधि ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम के प्रभाव से जो ज्ञान की प्राप्ति होती है वह ज्ञानबोधि है दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम आदि से जो श्रद्धान की प्राप्ति होती है वह दर्शनयोधि है बोधि वाले जो जीव हैं वे बुद्ध हैं। ये बुद्ध भी दो प्रकार के होते है एक ज्ञानबुद्ध और दूसरे दर्शनबुद्ध ये धर्म की अपेक्षा से ही भिन्न हैं धर्मिरूप से भिन्न नहीं हैं। क्यों कि ज्ञान और दर्शन ये परस्पर में अविनाभावि संबंध वाले हैं। जिस प्रकार बोधि और बुद्ध दो प्रकार के कहे गये हैं उसी प्रकार से माह और मृढ ये भी दो प्रकार के कहे गये हैं। इस विषयक आलापक इस प्रकार से है-"दुविहे मोहे पण्णत्ते" मोह दो प्रकार का कहा गया है (णाण मोहे चेव दमणमोहे चेव) एक ज्ञानमोह और दूसरा दर्शनमोह टी-"बोधन योधिः" मा व्युत्पत्ति अनुसार माथि शहना अर्थ नमना પ્રાપ્તિ છે. તે બેધિ બે પ્રકારની કહી છે-(૧) જ્ઞાનધિ અને (૨) દર્શનાધિ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષપશમથી જે જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેનું નામ જ્ઞાનધિ છે. દર્શનમોહનીય કર્મના ક્ષયોપશમ આદિથી જે શ્રદ્ધાની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેને દર્શનાધિ કહે છે. બોધિવાળા ને બુદ્ધ કહે છે. ते सुद्धना ५६५ मे २-(1) ज्ञानमुद्धभन (२) ६शनमुद्ध. ते भनी અપેક્ષાએ જ ભિન્ન છે, ધર્મારૂપે ભિન્ન નથી, કારણ કે જ્ઞાન અને દર્શન વચ્ચે અવિનાભાવી સંબંધ હોય છે. જેમ બેદ્ધિ અને બુદ્ધ બે પ્રકારના કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે મોહ અને મૂઢ પણ બે પ્રકારના કહ્યા છે. આ વિષયનું કથન નીચે પ્રમાણે છે– " दुविहे मोहे पण्णत्ते" मोड में प्रारन यो छ-" णाणमोहेचेव दसणमोहेचेव" (१) ज्ञानमा भने (२) ४शनमार. मे प्रमाणे भू० ५५ શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૧
SR No.006309
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size42 MB
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