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________________ सुघा टीका स्था० २ उ०१० १९ नारकादीनां शरीरद्वैविध्यनिरूपणम् ३२३ असुरकुमारेभ्य आरभ्य यावद् वैमानिकानां तैजसं कार्मकं चेति शरीरद्वयं भवति । 'नेरइयाणं ' इत्यादि - नैरयिकाणां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां शरीरोत्पत्तिर्भवति - रागेण द्वेषेण चेति । एवं यावद् वैमानिकानाम् ।' नेरइयाणं' इत्यादि-नैरयिकाणां द्विस्थाननिर्वर्त्तितं शरीरं भवति - रागनिर्वर्त्तितं द्वेषनिर्वर्त्तितं चेति । एवं यावद् वैमा निकानाम् । 'दो काया' इत्यादि द्वौ कार्यों प्रज्ञप्ती - सकायः स्थावरकायश्चेति । तत्र नामकर्मोदयात् त्रस्यन्तीति त्रसाः तेषां कायः = राशिखसकायः । स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवं शीलाः स्थावराः, तेषां काय: = समूहः स्थावरकायः । ' तसकाए' इत्यादि - सकायो द्विविधः - भवसिद्धिकः अभवसिद्धिकश्चेति । एवं स्थावरकायोऽपि ।। सू० १९ ॥ 1 और दूसरा कार्मणशरीर इसी तरह से विग्रहगति समापन्नक भवनपति से लेकर वैमानिक तक के जीवों को भी ये दो ही - तैजस और कार्मण शरीर हा होते हैं "नेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं " इत्यादि-नैरयिक जीवों के शरीर की उत्पत्ति दो स्थानों द्वारा होती है एक राग के द्वारा और दूसरे द्वेष के द्वारा इसी तरह से शरीरोत्पत्ति के विषय का कथन वैमानिक तक के जीवों का भी कर लेना चाहिये काय दो प्रकार कहा गया है एक सकाय और दूसरा स्थावर काय त्रसनामकर्म के उदय से जा अपनी इच्छा से चलते फिरते हैं डरते हैं भागते हैं वे सब त्रसजीव हैं इनकी जो राशि है वह सकाय है स्थावर नामकर्म के उदय से जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ जा नहीं सकते हैं एक ही जगह स्थिर रहते हैं वे स्थावर हैं इन स्थावरों का जो समूह है वह स्थावरकाय है કામણુ એજ પ્રમાણે વિગ્રહગતિ સમાપન્નક ભવનપતિથી લઈને વૈમાનિક પ ન્તના જીવેમાં પણ એ એ શરીરના જ (તેજસ અને ક્રાણુ શરીરના જ) સાવ હાય છે. नेरइयाणं दोहि ठाणेहिं " त्याहि-नार भवानां शरीरनी उत्पत्ति मे स्थानो (अरणे। ) द्वारा थाय छे - ( १ ) रागद्वारा भने (२) द्वेषद्वारा शरीशત્પત્તિને અનુલક્ષીને વૈમાનિક પન્તના જીવા વિષે પણ આ પ્રકારનું કથન थर्पु लेहाखे. अयना मे अार छे - (१) साय भने (२) स्थापराय त्रस નામકમના ઉદયથી જે પેાતાની ઈચ્છાથી હરે ફરે છે, ડરે છે અને લાગે છે, તે જીવેશને ત્રસ જીવેા કહે છે. એવાં જીવાની રાશિ (સમૂહ) ને ત્રસકાય કહે છે. સ્થાવર નામકમના ઉદયથી જે જીવા એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યા જઈ શકતા નથી, પણ એક જ જગ્યાએ સ્થિર રહે છે, એવાં જીવાને સ્થાવર 66 શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૧
SR No.006309
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size42 MB
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