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छाया - स्नातकानां तु द्वे सहस्रे ये भोजयेयु नित्यं ब्राह्मणानाम् ।
ते पुण्यस्कन्धं सुमहज्जनित्वा भवन्ति देवा इति वेदवादः ||४३|| अन्वयार्थः - ( जे दुवे सहस्से ) ये पुरुषाः द्वे सहस्रे (सिणाय गाणं) स्नातकानाम - वेदाध्ययन शौचाचारस्नानब्रह्मचर्यादिपरायणानाम् (माहणाणं) ब्राह्मणानाम् ( गियर भोयए) नित्यं - प्रतिदिनं भोजयेयुः - भोजनं कारयेयुः (ते) ते ( सुमहं) सुमहान्तम् (पुन्नखंधं ) पुण्यस्कन्धम् - पुण्यानां राशिम् (जणित्ता) जनित्वा समुत्पाद्य (देव भवंति ) देवा भवन्ति (इति वेयवाओ ) इति - वेदवादः, वेदे इत्थं
सूत्रकृताङ्गसूत्रे
इस प्रकार बौद्ध भिक्षु का निराकरण करके मुनि आर्द्रककुमार आगे चले तो मार्ग में वेदवादी ब्राह्मण मिल गए। वे बोले आपने बौद्धों के मत का निराकरण किया सो ठीक किया । हमारा मत सुनिए । यही कहते हैं- 'सिणायगाणं' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ब्राह्मण कहते हैं- 'जे सिणायगाणं-ये स्नानकानां' जो वेद के अध्ययन शौचाचार, स्नान, एवं ब्रह्मवर्य में परायण 'दुवे सहस्से - द्वे सहस्रे' दो हजार 'माहणाणं ब्राह्मणानां' ब्राह्मणों को 'णियए भोषएनित्यं भोजयेत्' प्रतिदिन भोजन कराता है 'ते-ते' वे 'सुमहं सुमहत्' महान् 'पुन्नखंधं पुण्यस्कन्धं' पुण्यस्कंध 'जणित्ता-जनित्वा' उपार्जन कर के देव होते हैं 'इति वेयवाओ - इतिवेदवादः' ऐसा वेद में कथन है ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थ - ब्राह्मण कहते हैं जो पुरुष प्रतिदिन वेद के अध्ययन, शौचाचार स्नान एवं ब्रह्मचर्य में परायण दो हजार ब्राह्मणों को भोजन
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આ પ્રમાણે બૌદ્ધ ભિક્ષુનું નિરાકરણ કરીને મુનિ ક કુમાર આગળ ચાલ્યા તા માર્ગોમાં તેમને વેદુ ધર્મનું આચરણ કરનાર બ્રાહ્મણ મળ્યા તેમણે કહ્યુ કે–ભાપે બૌદ્ધોના મતનું ખંડન કર્યું" તે ચાગ્ય જ કરેલ છે. અમારે भत सांलो हे छे - 'सिणायगाणं' इत्यादि
शब्दार्थ - श्राह्मा ४ छे - 'जे सिणायगाणं-ये स्नातकानां' वेहना अध्ययन, शौयायार, स्नान, भने ब्रह्मयर्य मां परायण 'दुवे सहस्से - द्वे सहस्रे ' मे इतर 'माहणाणं - ब्राह्मणानां ब्राह्मखेने 'णियए भोयर - नित्यं भोजयेत' ६२. शेन लोभन उरावे छे. 'ते-ते' ते 'सुमह' - सुमहत्' महान 'पुण्णखंध- पुण्यस्कन्ध" एयस्ध 'जणित्ता - जनित्वा' आस उरीने देव थाय छे 'इति वयबाओ - इति वेदवादः' याप्रमाणे वेदमां उथन उरेल . ॥४३॥
અન્વયા બ્રાહ્મણા કહે છે—જે પુરૂષ દરરાજ વેદાધ્યયન કરવામાં, શૌચાચારમાં, સ્નાન અને બ્રહ્મચ માં તત્પર રહેવાવાળા બે હજાર બ્રાહ્મણાને
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૪