SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 646
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६३५ छाया-वागमियोगेन यदावहेनो तादृशीं वाचमुदाहरेत् । अस्थानमेतद्वचनं गुणानां, नो दीक्षितो ब्रूयादुदारमैतत् ॥३३॥ अन्वयार्थः--(वायाभिजोगेण) वागभियोगेन (जमायहेज्जा) यदावहेत् । (तारिसं वाय नो उदाहरिजा) तादृशीं वाचं नोदाहरेत्-यया वाचा प्राणातियातो भवेत् सा वाक् न वक्तव्या, (एयं वयणं गुणाणं अट्टाणं) एतद् वचनम्-भवदुक्तं वचनं गुणानामस्थानम् (एयं उरालं) एतदुदारम् (दिक्खिए नो बूया) दीक्षितो नो वदेदिति ॥३३॥ 'वायाभिजोगेण' इत्यादि। शब्दार्थ-'वायाभिजोगेण-वागभियोगेन' जिस प्रकार के वचन का प्रयोग करने से 'जमावहेज्जा-यदावहेत्' पाप की उत्पत्ति हो 'तारिस वायं नो उदाहरिज्जा-तादृशं वाचं नोदाहरेत्' ऐसा वचन मेधावी पुरुषको संकटके समय भी नहीं बोलना चाहिए 'एयं वयणं गुणाणं अट्ठाणं-एतद्वचनं गुगानामस्थानम्' क्योंकी मावद्य भाषा भी कर्मबन्धका कारण होती है 'एयं उरालं-एतत् उदारम्' इस प्रकार का वचन गुणों का स्थान नहीं है, अतएव 'दिक्खिए नो बूया-दीक्षितो नो वदेत्' दीक्षित पुरुष ऐसा सारहीन वचन न बोले ॥३३॥ ____ अन्वयार्थ--जिस प्रकार के वचन का प्रयोग करने से पाप की उत्पत्ति हो ऐसा वचन मेधावी पुरुष को संकट के समय भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि सवद्य भाषा भी कर्मबन्ध का कारण होती है । खल 'वायाभिजोगेण' या शहा--'वायाभिजोगेण-वागभियोगेन' । वयनानी प्रयोग ४२ पाथी 'जमावहेज्जा-यदावहेत्' पानी उत्पत्ती थाय 'तारिस वायं न उदाहरिज्जा -ताशं वाचं नोदाहरेत्' मा क्यनी मुद्धिशाली ५३षा सटन समये ५५५ लासवानलमे. 'एयं वयणं गुणाणं अट्ठाणं-एतद्वचनं गुणानामस्थानम्' भी सावध भाषा ५५॥ म ना २९५ ३५ हाय छे. 'एयं उरालं-एतत् उदार' माया मारना क्यनी शुशानुं स्थान नथी. तेथी। 'दिक्खिए नो बूया दीक्षितो नो वदेत्' alक्षत ५३ मा सार विनाना क्यना न मावा ॥33॥ અન્વયાર્થ-જે પ્રકારના વચનને પ્રયોગ કરવાથી પાપની ઉત્પત્તી થાય બુદ્ધિમાન પુરૂષે તેવા વચને મુશ્કેલીના સમયમાં પણ બેલવા ન જોઈએ. કેમકે સાવદ્ય ભાષા પણ કમબંધના કારણ રૂપ હોય છે. ખલપિંડ પુરૂષ છે, श्री सूत्रतin सूत्र : ४
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy