SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 620
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६०१ अन्वयार्थः--आद्रको गोशालक प्रति कथयति-भोः ! (वणिया) वणिज:व्यापारकर्तारः (भूयगाम) भूतग्राम-माणिसमुदायम् (समारभंते) समारभन्तेआरम्भसमारम्भं कुर्वन्ति, तथा-(परिग्गह) परिग्रहम् (चेव) चैत्र (ममायमाणा) ममीकुर्वन्ति-अर्थात्-परिग्रहेऽपत्यदारधनादौ ममेत्यहंकारं व्रजन्ति-ममत्वबुद्धि दधतीत्यर्थः, (ते) ते वणिजः (गाइसंजोगमविप्पहाय) ज्ञातीनां परिवाराणां संयोगं यथायथं स्वस्वामिभावादिसम्बन्धम् अविपहाय-अत्यक्त्वा (आयस्स हे) आयस्य-मूलद्रव्यतो लब्धस्याः वृद्धे हैतौ (संग) सद्गम्-अयोग्यैरपि सह सम्बन्धम् (पगरंति) प्रकुर्वन्ति, वणिजस्तु यथायथ व्यापारं कुर्वन्तः घातयन्ति जीवान् 'वणिया-वणिजः' व्यापारी लोग 'भूयगाम-भूतग्राम' प्राणी समूहका 'समारभंते-समारभन्ते' आरंभ समारंम करते हैं तथा 'परिग्गहं चेव -परिग्रहं चैव' परिग्रह के ऊपर 'ममायमाणा-ममीकुर्वन्ति' ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र, धन, आदि पर ममत्वभाव धारण करते हैं 'ते-ते' वे वणिक् जन 'णाइसंजोगमविप्पहाय-ज्ञातिसंयोगमविप्रहाय' पारिवारिक जनों के संयोगको अर्थात् स्वस्वामी संबन्धको त्याग न करते हुए 'आयस्थ हेउ-आयस्स हेतोः' लाभ के लिए 'संग-सङ्गम्' संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी संबंध 'पगरंतिप्रकुर्वन्ति' करते हैं ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ--आर्द्रक पुनः गोशालक से कहते हैं-हे गोशालक ! व्यापारी लोग प्राणिसमूह का आरंभ समारंभ करते हैं तथा परिग्रह पर ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र धन आदि पर ममत्व भाव धारण करते हैं। वे पारिवारिक जनों के संयोग को अर्थात् स्वस्वामी 'वणिया-वणिजः' वेपारीयो 'भूयगाम-भूतप्राम" प्राणी सभूउनी 'समारभतेसमारभन्ते' माल भने समा२ ७३ छ. तथा 'परिग्गह' चेव-परिग्रह चैव' परिवहनी ५२ 'ममायमाणा-ममीकुर्वन्ति' ममता रामेछ. अर्थात पुत्र, सत्र धन, विगेरे ७५२ ममत्वमा धारण ४२ छ. 'ते-ते' ते वेपारीयो ‘णाइसंजोगम विप्पहाय-ज्ञातिसंयोगमविप्रहाय' परिवारना माणुसोना सयागने अर्थातू २१२वामी सधनी त्या न ४२ai 'आयस्स हेउ-आयत्य हेतोः' साल भाटे 'संगसङ्गम' समधन ४२वाने योग्य सोडानी साथे ५ सय 'पगरंति-प्रक वन्ति' ४२ छे. ॥२१॥ અન્વયાર્થ––આદ્રક ફરીથી ગોશાલકને કહે છે. તે ગોશાલક વ્યાપારી લોકે પ્રાણિ સમૂહને આરંભ સમારંભ કરે છે. તથા પરિગ્રહ પર મમતા રાખે છે. અર્થાત્ પુત્ર કલત્ર ધન વિગેરેમાં મમત્વ બુદ્ધિ રાખે છે. તે પરિવા શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy