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समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६०७
अन्वयार्थ:--(नवं न कुज्जा) नव-नवीनं कर्म न कुर्यात्-न करोति (पुरापो) पुराणं पूर्वकालिकं बद्धकर्म (विहूणे) विधूनयति-अपनयति (अमई) अति-कुमा तिम् (चिच्चा) त्यक्त्वा-परित्यज्य (ताइ य) वायी-षड्जीवनिकायरक्षकः स भगवान् (एव) एवम् (आह) आह-कथयति (एयोवया) एतावता (बंभवत्ति त्ति) ब्रह्ममोक्षो भवतीति (वुन्त) उक्तम्-कथितम् (तस्स) तस्य -मोक्षस्य (उदयट्ठी) उद. यार्थी-लाभार्थी (समणे तिबेमि) श्रमणो महावीर इति ब्रवीमि-कथयामीति ॥२०॥
टीका-भगवान महावीरः, 'नवं न कुज्जा" नवं न कुर्यात्-नूतनं कर्म न करोति, 'पुराणं विहूणे' प्राक्तनं-समाराऽऽपादक कर्म विधूनयति-क्षपयति । के त्याग को ही ब्रह्मवत 'वुत्त-उक्तम्' कहागया है 'तस्स-तस्य' उन मोक्ष का 'उदयट्ठी-उदयार्थी लाभ की इच्छावाले 'समणेत्ति बेमि-श्रमण इति ब्रवीमि' श्रमण भगवान महावीर है, ऐसा मैं कहता हूं ॥२०॥
अन्वयार्थ--भगवान् महावीर नवीन कर्मबन्ध नहीं करते हैं, किन्तु पूर्वबद्ध कोका क्षय करते हैं । षट् जीवनिकायों के रक्षक भग. वान् ऐसा कहते हैं कि कुमति को त्याग कर ही कोई मोक्ष प्राप्त करता है। कुमति का त्याग करने से ही ब्रह्मव्रत कहा गया है। श्रमण भगवान् उसी मोक्षवत (ब्रह्मवत) के अभिलाषी हैं ॥२०॥
टीकार्थ-आईक मुनि गोशालक से कहते हैं- भगवान् के लिए तुमने व्यापारी का जो दृष्टान्त दिया है सो वह एकदेश से या सर्वदेश से ? एक देश से हो तो वह हमें भी इष्ट है, क्योंकि भगवान् जहां उपदेश की सफलता देखते हैं, वहीं धर्मोपदेश देते हैं। दूसरा पक्ष 'वुत्तं-उक्तम्' ४ छे. 'तस्स-तस्य' ते भाक्षना 'उदयढी-उदयार्थी' सामना
छावा 'समणेत्ति बेमि-श्रमण इति ब्रवीमि' श्रम लगवान् महावीर छे. એ પ્રમાણે હું કહું છું. રમા
અન્વયાર્થ-ભગવાન શ્રી મહાવીર નવીન કર્મબંધ કરતા નથી. પરંતુ પૂર્વ બદ્ધ કર્મોને ક્ષય કરે છે. ષટુ જીવનિકાના રક્ષક ભગવાન રવયં એવું કહે છે કે-કુમતિને ત્યાગ કરે તેને જ બ્રહ્મવત કહ્યું છે. શ્રમણ ભગવાન એજ મિક્ષ વ્રત (બ્રહ્મવ્રત) ના અભિલાષી છે. રા
ટીકાર્ય–આદ્રક મુનિ ગોશાલકને કહે છે કે – ભગવાન મહાવીર માટે તમેએ વ્યાપારીનું દૃષ્ટાંત આપ્યું તે તમેએ એકદેશથી આપેલ છે કે સર્વ દેશથી આપેલ છે? જે એક દેશથી એ દષ્ટાન્ત આપેલ હોય તે તે અમને પણ માન્ય છે, કેમકે-ભગવાન જ્યાં ઉપદેશની સફળતા જુવે છે, ત્યાંજ ધર્મો
श्री सूत्रतांग सूत्र : ४