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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. धु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ४९५ अन्वयार्थः -- ( जमियं ) यदिदं - परिदश्यमानम् ( ओरालं) औदारिकं शरीरम् (आहार) आहारकं शरीरम् (च कम्मगं च पुनः कार्मणं शरीरम् (तहेव य) तथैव च च शब्दाद् वैक्रियतैजसशरीरयोः परिग्रहः, एतानि शरीराणि एकान्ततः नाभिन्नानि कारणभेदात् न वा एकान्ततो भिन्नानि कारणभेदात्, अत एकान्तवचनं न वक्तव्यम्, एवम् - (सम्वत्थ वीरियं अस्थि) सर्वत्र वीर्यमस्ति इत्यपि एकान्तवचनं न वक्तव्यम् (एवं सभ्वस्थ वीरिये नस्थि) सर्वत्र वीर्य नास्ति इत्यपि एकान्तवचनं न वक्तव्यम्, एकान्तवचनस्याऽनाचारत्वादिति ॥१०॥ भिन्न भी नहीं है, क्यों की एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं और सभी पुल परमाणुओं से निर्मित हैं। अतएव इनके भेद और अभेदके सम्बन्ध में एकान्तवचन कहना नहीं चाहिए 'सन्त्रस्थ वीरियं अस्थि- सर्वत्र वीर्य अस्ति' सर्वत्र वीर्य है, अर्थात् सभी पदार्थों में प्रत्येक पदार्थ की शक्ति विद्यमान है, अथवा 'सव्वस्थ वीरियं नस्थि- सर्वत्र ata नास्ति' सर्वत्र वीर्य विद्यमान नहीं है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चाहिए || गा० १० || अन्वयार्थ - यह जो दिखाई देने वाला औदारिक शरीर है, आहा. रक शरीर है, कार्मण शरीर है और 'च' शब्द से वैक्रिय तथा तैजस शरीर हैं यह पांचों शरीर एकान्ततः भिन्न भी नहीं है, क्योकि एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं और सभी पुद्गलपरमाणुओं से निर्मित हैं । अतएव इनके भेद और अभेद के संबंध में एकान्तवचन नहीं कहना चाहिए। सर्वत्र वीर्य हैं अर्थात् सभी पदार्थों में કેમકે એક જ દેશ અને એક જ કાળમાં ઉપલબ્ધ-પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુદ્ગલ પરમાણુઓથી બનાવેલ છે. તેથી જ આના ભેદ અને અભે हना संबंधां येान्त वयन उवा न लेहो, 'सव्वत्थ वीरियं अस्थिसर्वत्र वीर्यमस्ति' मधे वीर्य छे. अर्थात् सघणा पहार्थमां हरे पहार्थनी शक्ति रहेली छे, अथवा 'सव्वत्य वीरियं नत्थि - सर्वत्र वीर्य नास्ति' मधे શક્તિ વિધમનિ નથી. એ રીતથી એકાન્ત વચન પણુ કહેવા ન જોઇએ. ।।૧૦ના અન્વયાય—જે આ દેખવામાં આવનારૂ ઔદારિક શરીર છે, આહારક શરીર છે, કાણુ શરીર છે, અને ચ શબ્દથી વૈક્રિય અને તૈજસ્ર શરીર છે, આ પચિ શરીર એકાન્તતઃ જુદા નથી. કેમકે એક જ દેશ અને કાળમાં પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુદ્ગલ પરમાણુએથી નિમિ`ત છે. તેથી જ તેના લે અને અભેદના સમધમાં એકાન્ત વચન કહેવા ન જોઈએ. શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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