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________________ २९६ सूत्रकृताङ्गसत्रे ते गुप्तेन्द्रियाः 'गुत्तव' भयारी' गुप्तब्रह्मवर्याः 'अकोहा' अक्रोधाः 'अमाणा' अमानाः, 'अमाया' अमापाः 'अलोहा' अलोभाः क्रोधमानमायालोमादिभिः परिवर्जिताः 'संता' शान्ताः 'पसंता' प्रशान्ताः - अतिशयेन 'उवसंता' उपशान्ताः - बाह्यान्तरशान्तिसहिताः परिनिब्बुडा' परिनिवृत्ताः समस्तसन्तापरहिता इत्यर्थः 'अणासवा' अनास्रवा :- आस्रवसेवनरहिताः 'अग्गंथा' अग्रन्थाः समस्तपरिग्रहरहिताः 'छिन्नसोया' छिन्नशोकाः छिनो विदारितः शोकपदवाच्यः संपारो यैस्ते छिन्नशोकाः 'निरुवलेवा' निरुपलेपा:- कर्मरूपपलरहिताः 'कंसपाई मुक्कतोया' कांस्यपात्रीव मुक्ततोया: : - यथाकांस्यपात्रं जलजनितविकारेण न लिप्यते तद्वत् कर्ममलैरलिप्ताः 'संखो इब णिरंजणा' शङ्ख इव निरञ्जनाः, यथा शङ्खः प्रकृत्या स्वच्छो न तु कालिमादिदोषैः संस्पृष्टो भवति तथैव हि भवन्ति रागादिदोषैरनाघाताः । 'जीव इव अप्पडिहयगई' जीव इवाऽप्रतिहतगतयः, यथा जीवानां गतिर्न प्रतिरुध्यते, तथा यथोक्तमहतामपि न निरुध्यते गतिः। 'गगणतलं व निरालंवणा साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। क्रोध मान माया और लोभ से रहित होते हैं । शान्त, प्रशान्त, उपशान्त- बाह्य एवं आन्तरिक शान्ति से सम्पन्न होते हैं। परिनिर्वृत्त, आस्रवद्वारों से रहित, समग्र ग्रंथियों से रहित छिन्नशोक-संसार के मूल को छेदन कर देने वाले अथवा शोक से रहित कर्मरूप मल से रहित, जैसे कांसे का पात्र जल के लेप से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार कर्ममल से लिप्त न होने वाले, जैसे शंख स्वभाव से निष्कलंक होता है, उसी प्रकार समस्त कालिमा से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति रोकी नहीं जा सकती, वैसे भी उनकी गति में भी रुकावट नहीं डाली जा सकती । ચાને વિષચેાથી ગેાપન કરીને રાખે છે. નવ વાડાની સાથે બ્રહ્મચર્યનું પાલન हुरे छे. द्वोघ, भान, माया, भने बोलथी रडित होय छे. शान्त, प्रशान्त, उपशान्त मा भने तरि शक्तिथी युक्त होय छे. परिनिवृत, ग्यासव, દ્વારાથી રહિત સઘળી ગ્રન્થિયાથી રહિત છિન્ન શાક-સંસારના મૂળનું જૈદન કરવાવાળા, અથવા શેકથી રહિત કમ રૂપ મળથી રહિત, જેમ કાંસાનું વાસણુ પાણીના લેપથી લિપ્ત થતું નથી, એજ પ્રમાણે કમ રૂપી મળથી ન લિપાનારા, જેમ શખ સ્વભાવથી નિષ્કલ'ક હોય છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પ્રારની કાલિમા—મલિન પણાથી રહિત હોય છે. જેમ જીવની ગતિ કી શકાતી નથી, તેમ તેઓની ગતિમાં પણ કાણુ કરી શકાતુ નથી. શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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