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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् वा वेत्तेग वा' जोत्रेग वा वेत्रेण वा 'णेत्तेग वा' नोदकेन वा प्रेरकदण्डेन 'तयाइ वा' त्वचा वा-त्वनिर्मितेन 'कण्णेश वा' कशया वा 'छेयाए वा' छेद केन वा-परश्यादिना 'लयाए वा' लतथा वा 'अन्नपरेग वा' अभ्यतरेण वा 'दवरएग वा' दवरकेण वा 'पासाइ उद्दालिता भवई' पार्थानि उदालयिता भवति, अर्थात्-कशादिभिः पावस्थं चर्म उत्पाट यति 'दंडेग वा-भट्ठीण वा-मुट्ठीण वालेलूण वा-कपालेण चा-कार्य आउहित्ता भई दण्डेन वा-यष्टयादिना अस्थना वा-मुष्टिना वा-लेष्टुना वा (लोष्ट्रेण) वा-कपालेन वा-घटावयवेन वा कायंशरीरम्-आकुट्टयिता भवति-हिनस्ति। दण्डादिना प्रहार्य तदीयशरीरं शिथिल यति। 'तहप्पगारे पुरिस नाए' तथाप्रकारे-ईदृशभोषणकर्मकारिपुरुषजाते 'संवसमाणे' संसति गृहे तदीय पुत्रकलबभ्रातृ मागिन्यादयः 'दुम्मणा भवंति' दुर्मनसो भवन्ति 'पवसमागे' प्रवपति-गृहाद्विनिर्गते सति तदीयवान्धवाः 'सुमणा भवंति' सुमनस:-प्रसन्ना भवन्ति' हिमाऽाये कमलपनवत् इति । 'तहप्पगारे पुरिसजाए' तथामकारो दुष्कर्षा पुरुषमातः । ‘दंडपासी' दण्डपा:-दण्डः पाझे यस्य स तथा, स्वल्पाऽपराधेऽपि अधिकदण्डदायकः 'दंडगुरुए' दण्डगुरुकः है, जोत से, वेत से, आर लगे डंडे से, चमड़े के चाबुक से, फरसा से, लता से, किसी प्रकार के रास्ते से मार-मार कर अपराधी के पावं भाग की चमड़ी उधेड़ देता है या लाठी से, हटडी से, घूसे से, ढेलेसे, कपाल से शरीर पर आघात पहुंचाता है । डंडे मार-मार कर शरीर को ढीला कर देता है। ऐसा पुरुष जब घरके भीतर रहता है तो उसके माता, पिता, भाई, भागिनी आदि दुःखी और उदास रहते हैं और जब वह घर से बाहर निकल जाता है तो प्रसन्न होते हैं, हिम के नष्ट हो जाने पर कमलवन के समान खिल उठते हैं। ऐसा पुरुष बगल में डंडा रखता है-थोडे से अपराध का अधिक दंड देता है, તેમાં પાડે છે, જેતરથી, વેતથી, આર લગાવેલા ઠંડાથી, ચામડાના ચાબુકથી, ફરસાથી, લતાથી કોઈ પણ પ્રકારથી મારી મારીને અપરાધીન પડખાના ભાગની ચામડી ઉખેડી નાખે છે, અથવા લાકડીથી, હાડકાથી, ઘુસ્તાથી, ઢેખલાથી, કપચી, શરીર પર પીડા પહોંચાડે છે ડંડા મારી મારીને શરીરને ઢીલું કરી દે છે. એવો પુરૂષ જ્યારે ઘરની અંદર રહે છે, તે તેના માતા, પિતા, ભાઈ, બહેન વિગેરે દુઃખી અને ઉદાસ રહે છે, અને જ્યારે તે ઘરની બહાર નીકળી જાય છે, ત્યારે તેઓ સઘળા પ્રસન્ન થાય છે, જેમ હિમના નાશ થવાથી કમળ વન ખીલી ઉઠે છે, તેમ તેઓ ખુશી શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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