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________________ more १६८ सूत्रकृताङ्गसूत्र उन्शिय-परित्यज्य अनर्थदण्डस्य कटुफलमिति विवेकमाकुर्वन् ‘बाले' 'बारसदसद्विवेकविकलः जीवैः सह 'वेरस्य' वैरस्थ 'आभागी भवई' आमागी भवतिसर्वथा भागी भवनि 'अणट्ठादंडे' अनर्थदण्ड:-निष्पयोजनदण्डः सः। 'से जहा णामए' तद्यथानाम 'केइ पुरिसे' कश्चित् पुरुषः 'जे इमे यावरा पाणा भवंति' ये इमे स्थावराः पाणाः पृथिव्यादयो भवन्ति 'तंजहा' तद्यथा-'इककाडाइवा' इकाडादि वा-वनस्पतिविशेषस्येय संज्ञा, 'कडिणाइ वा' कठिनादि वा 'जंतुगाइ वा' जन्तुकादि वा-एते वनस्पतिविशेषाः 'मोक्खाइवा' मुस्तकादि 'तणाइ वा' तृणादि ; 'कुसाइ वा कुशादि वर्ग 'कुन्छ गाइ वा' कुच्छकादि वा 'पब्धगाइ वा' पर्वकादि वा 'पलालाइ वा' पलालादि वा 'ते णो पुत्तपोसणाए' ते नो पुषपोष. णाय तांस्तान्-पूढेपदर्शितस्थापरकायान, यान् हन्ति नो ते पुत्रघोष गाय पुत्रपदमुपलक्षणकं तेन सर्वेषां ज्ञातिपरिवाराणां सग्रहः, 'णो पसुगोसणाए' नो पशुपोषणाय 'णो आगारपरिवहणार नो आगारपरिवद्रये 'णो सपणमाहण उपद्रवकारी, अनर्थदंड के कटुकफल को न समझने वाला वह मन्दबुद्धि जीवों के साथ होने वाली शत्रुना का भागी होता है, निरर्थक ही वैर का भाजन बनता है। ___ और यह जो पृथिवी आदि स्थावर प्राणी है, जैसे हक्कड, कठिन तथा जन्तुक नामक वनस्पतियां, मोथा, तृण, कुश, कुच्छक, पर्वक, पलाल, इन वनस्पतियों का पुत्र का पोषण करने के लिए हनन नहीं करता है, 'यहां पुत्र शब्द उपलक्षग है, उमसे सभी ज्ञाति-परि. वार आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए' न पशुओं का पोषण करने के लिए हनन करता है, न घर को बढाने के लिए, न श्रमणमाहन के पोषण के लिए, न अपने शरीर की रक्षा के लिए हनन करता है, वह निष्प ફળને ન સમજવા વાળા, તે મંદ બુદ્ધિવાળા જીવોની સાથે થનારા શત્રુ પણાના ભાગીદાર બને છે. નિરર્થક જ વેરને પાત્ર બને છે. અને જે આ પૃથ્વીકાય વિગેરે સ્થાવર પ્રાણી છે, જેમકેહિક્કા-કઠિન -तथा सन्तु नामनी वनपतिया. तथा भाथा, तु, श१२७५, ५४, પલાલ, આ વનસ્પતિનું જેએ કુટુમ્બનુ પિષણ કરવા માટે હાન–વધ કરતા નથી, અહિયાં (કુટુંબ શબ્દથી સઘળા જ્ઞાતિ-પરિવાર વિગેરે સમજી લેવા) ન પશુઓનું પિષણ કરવા હનન-વેધ કરે છે. ન ઘર વધારવા માટે, ન શ્રમણ કે મહેનના પિષણ માટે ન પિતાના શરીરની રક્ષા માટે હનન શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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