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________________ ११० सूत्रकृताङ्गसूत्रे मानं कृत्वा-मदर्था इमे इत्येवं जानाति, 'तं जहां तद्यथा-'खेतं मे वत्थू मे' क्षेत्र मे वास्तु मे 'हिरणं में, सुबन्न मे, धणं धणं मे, कंस मे, दूसं मे' हिरण्यं मे सुवर्ण मे धनं मे धान्यं मे कांस्यं में यं मे वस्त्रविशेषो मे 'विउलधगकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पयालरत्तरयणसंतसारसावतेयं मे' विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्खशिलामवालरत्नसत्सारस्वापतेयं मे सदा मे रूवा मे' शब्दा मे रूपाणि मे 'गंधा मे रसा मे फासा मे' गन्धा में-मम, रसा मे-मम, स्पर्शा मे-मम, 'एए खलु कामभोगा, अहमवि एएसिं' एते खलु कामभोगा मम, अहमप्येतेषाम् , क्षेत्रादारभ्य स्पर्शान्ताश्च विषया मम कामभोगाय सन्तीति, मेधावी यदवधारयति तदाह-'से मेहावी' इत्यादि । 'से मेहावी पूवमेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा' अथ मेधावी पूर्वमेवाऽऽत्मना एवं वक्ष्यमाणपकारेण समभिजानीयात् , किं जानीयादित्याह-'तं जहा' तद्यथा 'इह खलु मम अन्नयरे' इह खलु ममाऽन्यतरत् 'दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा' दुःख-पीडारोगः-ज्वरादिः आतङ्कः-सद्योघातियह क्षेत्र (खेत) मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चांदी सोना मेरा है, यह धन धान्य मेरा है, यह कांसा मेरा है, यह पुष्प या वस्त्र मेरा है, ये प्रचुर धन, कनक, रत्न मणि, मोती, शंख, शिला, मूंगा, लालरत्न और उत्तम सार भूत पदार्थ मेरे हैं, मनोहर शब्द करने वाले वीणा आदि वाथ मेरे हैं, सुन्दर रूपवाली स्त्रियां मेरी हैं । इत्र-अत्तर तथा सुगंधयुक्त तैल आदि मेरे हैं, उत्तम रस एवं स्पर्श वाले पदार्थ मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ। तात्पर्य यह है कि अज्ञानीजन सांसारीक पदार्थों को अपना मानते हैं। किन्तु ज्ञानी पुरुष को पहले ही यह समझ लेना चाहिए जव मुझे कोई दुःखातंक अर्थात् ज्वर आदि रोग तथा शीघ्रघात करने वाला भेत२ भाइ छ. म. मान-घर मा छे. मी यांसी, सोनु भा छे. मा धन, धान्य भाई छ. . सुभाइ छ. २मा १०५ मा १ मा३' छे. म। घाम धन, जन-सोनुन मणि, माती, शम शिal, sara, भु॥ -લાલ રત્ન તથા ઉત્તમ સાર રૂપ પદાર્થો મારા છે. સુંદર શબ્દ કરવાવાળી વીણા. વિગેરે વાદ્યો મારાં છે, સુંદર રૂપવાન સ્ત્રી મારી છે. અત્તર તથા સુંગધવાળું તેલ મારૂં છે. ઉત્તમ રસ, તથા સ્પર્શવાળા પદાર્થો મારા છે, અને હું તેને માલિક છું. તાત્પર્ય એ છે કે-અજ્ઞાની મનુષ્ય સંસારના પદાર્થોને પોતાના માને છે. પરંત જ્ઞાની પુરૂએ તે પહેલેથી જ એ જાણી લેવું જોઈએ કે-જ્યારે મને કઈ પણ દુઃખ કારક અર્થાત તાવ વિગેરે રોગ તથા શીધ્રઘાત કરવા श्री सूत्रतांग सूत्र : ४
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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