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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५१९ ___ अन्वयार्थः--मोक्षाभिमुखानामनुशासनं प्रदर्शयति-मोक्षाभिमुखा यदनुशा. सति तत् (अणुसासणं) अनुशासनं सदुपदेशः, तत् (पाणी) माणिषु-जगज्जन्तुषु (पुढो) पृथक् भिन्न भिन्नं वर्तते भिन्न भिन्नतया तत् परिणमते न तु समानतया, तत्तज्जीवानां तत्तदन्तःकरणस्य भिन्नभिन्नस्वभावत्वात् । तेनानुशास. नेन कश्चिदेव मोक्षाभिमुखो भवति न तु सर्वे, योऽनुशासकः स कीदृशो भवेदित्याह-(वसुमं) बम्मान-वसु-धनं मुनेधनं तु संयम एव तद्वान् वसुमान् संयमवान्, तथा (पूयणासए) पूजानास्वादक:-पूजा-सत्कारः तस्या अनास्वादका मनोवाक्कायैरनुमोदकः, अतएव (प्रणासए) अनाशयः पूजायभिप्रायवर्जिता, अत. एव (जए) यता-भयतः संयमे यत्नवान , कुतः ? (दंते) दान्तः-इन्द्रियनोइन्द्रियद. मकः अतएव (दढे) दृढः-देवादिभिरप्यविचलितस्वभावः, कुत एवम्-(आरयमेहुणे) __ अन्वयार्थ--मोक्ष के सन्मुख हुए महापुरुषों के अनुशासन के विषय में कहते हैं उन मोक्षाभिमुख पुरुषों का अनुशासन जगत् के जीवों में भिन्न भिन्न रूप में परिणत होता है, समान रूप में नहीं, क्योंकि विभिन्न प्राणियों का अन्तःकरण भिन्न भिन्न स्वभाव वाला होता है । उस अनुशासन से कोई कोई ही मोक्ष की ओर संमुख होता है, सभी नहीं। अनुशासक कैसा हो, सो कहते हैं-'वसु' का अर्थ है धन, मुनि का धन संयम ही है । अतएव 'वस्तुमान्' का अर्थ संयमवान् समझना चाहिए। जो संयमवान् है, आदर सत्कार का अस्वादन या अनुमोदन नहीं करता आदर सत्कार आदि की इच्छा से रहित होता है, संयम में यतनाबान होता है, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाला है, देव आदि भी जिसे चलायमान नहीं कर सकते, અન્વયાર્થ––મેક્ષની સન્મુખ ઉપસ્થિત થયેલ મહાપુરૂષના અનુશાસન સંબંધમાં કહે છે. એ મોક્ષાભિમુખ પુરૂષેનું અનુશાસન જગતના જીવોમાં જુદા જુદા પ્રકારથી પરિણત થાય છે. સરખી રીતે નહીં. કેમકે–જુદા જુદા પ્રાણિયોના અંતઃકરણે જુદા જુદા સ્વભાવવાળા હોય છે. એ અનુશાસનથી કઈ કઈ પુરૂષ જ મોક્ષની તરફ જનાર હોય છે. બધા નહીં. અનુશાસક કેવા હોય? તે સંબંધમાં કહે છે કે–વણ” અર્થાત ધન, મુનિનું ધન સંયમ राय छे. तेथी 'वसुमान्' ।। अथ सयभवान् से प्रभारी सभा જોઈએ. જેઓ સંયમવાન છે, આદર સત્કારનું આસ્વાદન અથવા અનુમોદન કરતા નથી. આદર સત્કાર વિગેરેની ઈચ્છા શહિત હોય છે. સંયમમાં યતનાવાન હોય છે, ઇન્દ્રિયનું અને મનનું દમન કરવાવાળા છે, દેવ વિગેરે પણ श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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