SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थबोधिनी टाका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ४९३ प्रतिपादयिता भवति इति अर्हन्नेवाऽतीताऽनागतवर्तमानवर्तिनोऽर्थस्य आरूपाता वर्तते, अतः 'न तत्र तत्रे'ति सुष्टूक्तम् , इति ॥२॥ मूलम्-तहिं तहिं सुयक्खायं से य सच्चे सुयाहिए। सया सच्चेण संपन्ने मित्तिं भूएहिं कैप्पए ॥३॥ छाया-तत्र तत्र स्वाख्यातं तच्च सत्यं स्वाख्यातम् । सदा सत्येन संपन्नो मैत्री भूतेषु कल्पयेत् ॥३॥ अर्हन्त ही अतीत अनागत और वर्तमान काल के पदार्थों के ज्ञाता हैं। इस प्रकार ठीक ही कहा गया है कि ऐसे धर्मप्रणेता अन्य दर्शनो में नहीं है ॥२॥ 'तहि तहिं सुयक्खायं' इत्यादि । __शब्दार्थ-'तहिं तहि-तत्र तत्र' श्री तीर्थङ्करदेव ने आगमादि स्थानों में 'सुयक्खायं-स्वात्यातम्' सम्पक प्रकार से जीवादि पदार्थों का कथन किया है 'से य-तच्च' वह भगवत् कथन ही 'सच्चे-सत्यं' सकल जगज्जीवों के हितकारक होने से यथार्थ है और वही 'सुयाहिए. स्वाख्यातम्' सम्यक् प्रतिपादित होने से सुभाषित है अतः 'सच्चेणसत्येन' मुनि संयम से 'संपन्ने-संपन्नः' युक्त होकर 'भूएहिं-भूतेषु' प्राणियों में 'मित्ति-मैत्रीम्' मैत्रीभाव 'कप्पए-कल्पयेत्' करे अर्थात् कहीं भी जीवविराधना की भावना न करें ॥३॥ અહંત ભગવાન જ અતીત, અનાગત, અને વર્તમાન કાળના પદાર્થોને જાણ નારા છે. આ પ્રમાણે ઠીક જ કહ્યું છે કે- આવા ધર્મ પ્રણેતા અન્ય દર્શ નમાં નથી રા 'तहि तहि सुयक्खाय' या शा---'तहि तहि-तत्र तत्र' श्री तीथ'४२ हेवे माराम विगैरे स्थानमा 'सुयक्खाय-स्वाख्यातम्' सारी रीते हि ५४ानु थन यु" छे से य-तच्च' से लावत् ४थन ४ 'सच्चे-सत्य' समस्त वानु हित४२ हाथी यथाथ छे. मने मे 'सुयाहिए-स्वाख्यातम्' सभ्य प्रतिपाहन ४३८ डोपाथी सुभाषित छे. तेथी 'सच्चेण-सत्येन' मुनि सयमयी संपन्ने-संपन्नः' युद्धत मनाने 'भूएहि-भूतेषु' प्राणियोमा 'मित्ति-मैत्रीम्' भैत्रीमा 'कप्पए-कल्पयेत्' ४२ अर्थात् ध्याय ५९ वानी विराधनानी छ। न ४२ ॥3॥ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૩
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy