SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६१ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् 'सदेव सर्व को नेच्छेत् , स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१॥इति॥ एतेन स्याद्वादो न मूलागमसिद्धः, अपि तु अर्वाचीनै निवेशितः इति शङ्काऽपि परास्ता । 'विभज्जवाय' इति मूलाक्षरत एव तस्य स्याद्वादस्य प्रादुर्भावात् । यद्य. प्यत्र स्याद्वादो न बीजरूपेणैव निहितो न तु स्वरूपेण तथापि वृक्षरूपेण काले भविष्यति । विभज्यवादमपि द्वि केनैव वक्तव्यम् । तत्राह-'भालादुयं' इति । 'भासायं' भाषाद्विकम् यत्र कुत्रापि वदेत् साधु स्तत्र धर्मव्याख्यानावसरे, और पर भाव की अपेक्षा से नहीं हैं। कहा भी है 'सदेव सर्व को नेच्छेत्' इत्यादि । ___ स्वरूप आदि चतुष्टय की अपेक्षा से समस्त पदार्थो को सत् कौन नहीं मानेगा! इसी प्रकार पररूप आदि चतुष्टय से वे असत् हैं। ऐसा भी कौन स्वीकार न करेगा? अगर ऐसा न माना जाय तो पदार्थों का स्वरूप सिद्ध ही नहीं हो सकता। विभज्यवाद के कथन से यह शंका भी दूर हो जाती है कि स्याद्वाद मूल आगमों से सिद्ध नहीं है। परन्तु अर्वाचीन आचार्यों ने उसका निवेश किया है । 'विभजवाय' इन मूल अक्षरों से ही स्या द्वाद का प्रादुर्भाव हुआ है । यद्यपि यहां स्पावाद का बीज रूप से नहीं विधान किया गया है, सप्तभंगी के रूप में नहीं तथापि वृक्ष रूप से तो समय पाकर ही होगा ? इस विभज्यवाद का कथन भी दो प्रकार की भाषाओं द्वारा ही करना चाहिये अर्थात् सत्य भाषा और व्यवहार ४७, भने ५२मानी अपेक्षायी नथी. छु ५४ छ है-'सदेव सर्व को नेच्छेत्' या સ્વરૂપ વિગેરે ચતુષ્ટયની અપેક્ષાથી સઘળા પદાર્થોને સત કેણ નહીં સમજે ? એજ પ્રમાણે પરરૂપ વિગેરે ચતુષ્ટયથી તેઓ અસત્ છે. એવું પણ કોણ નહીં સ્વીકારે ? જો એવું માનવામાં ન આવે તે પદાર્થોનું સ્વરૂપ સિદ્ધ જ થઈ શકતું નથી. વિભજ્ય વાદના કથનથી એ શંકા પણ દૂર થઈ જાય છે- સ્યાદ્વાદ મૂળ આગમેથી સિદ્ધ નથી. પરંતુ અર્વાચિન આચાર્યએ તેને નિવેશ કરેલ છે. 'विभज्जवाय' । भूकमक्षरोधी स्याद्वाहन प्राधि थ्ये छ. महियां સ્યાદ્વાદનું બીજ રૂપિજ વિધાન કરેલ નથી તેમ સપ્તભંગીના રૂપે પણ નહી તે પણ વૃક્ષ રૂપથી તે સમય મેળવીને જ થશે. આ વિભજ્યવાદનું કથન પણ છે श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy