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________________ ४४५ समार्थबोधिना टीका प्र. श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थ :- गुरुकुलवासिनो धर्ममुपदिशन्ति इत्याह - ( धम्मं च ) धर्मं च श्रुतचारित्रलक्षणं धर्मम् (खाइ) संख्यया - सबुद्ध्या स्वयं धर्मं ज्ञात्वा परेभ्यः ( वियागरंति) व्या गृणन्ति उपदिशन्ति मुनयः (ते) ते एवं विधास्ते साधवः (बुद्धा ह) बुद्धा: - त्रिकालदर्शिनः खलु निश्वयेन (अंतकरा ) अन्तकराः - सञ्चित कलकर्मणां विनाशकाः (भवति) भवन्ति (ते) ते एवंविधाः यथाऽवस्थित धर्मप्रतिपादकाः (दोहवि ) द्वयोरपि स्वपरयोः (मोयणार) मोचनाय -कर्मपाशविमोचनाय विमोचनया वा ( पारगा) पारगाः - संसारसमुद्राद उत्तारका भवन्ति, तथा एवंभूताः साधवः (संसोधियं) संशोधितम् - पूर्वापराऽविरुद्धम् (पण्डं) प्रश्नम् (उदाहरति ) उदाहरन्ति कथयन्ति ॥ १८॥ wap 'मोयणाए - मोचनाय' कर्मपाश से मुक्त होने के लिए 'पारगा - पारगाः' संसारसमुद्र से पार पहोंचाने वाले होते हैं तथा ऐसे साधु 'संमोधियं -संशोधितम् पूर्वापर से अविरुद्ध 'पण्डं प्रश्नम् ' प्रश्नों को 'उदाहरतिउदाहरन्ति' कहते हैं ॥ १८ ॥ अन्वयार्थ - मुनि लोग श्रुतचारित्र रूप धर्म को सम्यग् बुद्धि से स्वयं जान कर दूसरे को उपदेश देते हैं। इस प्रकार के वे साधु महात्मा त्रिकालदर्शी और सकल सञ्चित कर्म का विनाशक होते हैं। इस प्रकार यथावस्थित धर्म के प्रतिपादक वे मुनिगण अपने और दूसरे को कर्मपाश से छोड़ाने के लिये या कर्मपाशसे छोड़ा कर संसार समुद्र से पार करने बाले होते हैं और इस प्रकार के साधु पूर्वापर विरोध से रहित प्रश्न का उत्तर देते हैं ॥१८॥ घोताना भने भीलमोना 'मेोयणाए - मोचनाय' उर्भपाशथी भुस्त थवा भाटे 'पारगा - पारगाः' संसार सागरथी पार पहींयाडवावाजा होय छे, तथा मेवा साधु 'स' सोधिय- संशोधितम्' पूर्वापरथी अविद्ध 'पण्ह प्रश्नम्' अश्रने उदाहरति - उदाहरन्ति' हे छे. ॥१८॥ અન્વયા —મુનિલાક શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને સમ્યક્ બુદ્ધિથી સ્વય‘ જાણીને ખીજાને ઉપદેશ આપે છે. આ પ્રકારના તે સાધુ મહાત્માએ ત્રિકાલ દશી અને સઘળા સ'ચિત કર્મોના નાશ કરવાવાળા હેાય છે. આ રીતે યથાવસ્થિત ધર્મના પ્રતિપાદક તે મુનિગણુ પાતાને અને ખીજાને કમ પાશથી છેડાવવા માટે અથવા કમ પાશથી હાડાવીને સ ́સાર સમુદ્રથી પાર કરવાવાળા હાય છે. અને આવા પ્રદરના સાધુ પૂર્વાપર વિશેષથી રહિત પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે ૧૮મા શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૩
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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