SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४४ सत्रकृताङ्गसूत्र पतिभासम्पन्नः शास्त्रार्थपतिपादकश्च भवति । तथा सम्यग्ज्ञानाद्यर्थी तपः संयमौ पाप्य विशुद्धाहारेण शरीरयात्रा निर्वहन् मोक्षगामी भवतीति भावः ॥१७॥ मूलम् -संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हूँ ते अंतकरा भवंति। ते पोरगा दोह वि मोर्यणाए, संसोधियं पण्ह मुंदाहरंति ॥१८॥ छाया-'संख्यया धर्मच व्यागृणन्ति; बुद्धा हु तेऽन्तकरा भवन्ति । ते पारगा द्वयोरवि मोचनाय, संशोधितं पश्नमुदाहरन्ति ॥१८॥ करके प्रतिमा सम्पन्न और शास्त्र के अर्थ का प्रतिपादक हो जाता है। सम्यग्ज्ञानादि का अर्थी होकर तप और संयम को प्राप्त करके विशुद्ध आहार से शरीर निर्वाह करता हुआ मोक्षगामी होता है ॥१७॥ अब गुरूकुलवासियों का धर्म कहते हैं-'संखाइ धम्मंच' इत्यादि । शब्दार्थ-'धम्मंच-धर्मश्च' श्रुतचारित्र लक्षण धर्म को 'संखाइसंख्याय' सदबुद्धिसे स्वयं धर्मको जानकर के दूसरे को 'चियागरंतिज्यागुणन्ति' उपदेश करते हैं 'ते-ते' इस प्रकार के वे साधु 'बुद्धाहुहु बुद्धा' तीनों कालके ज्ञाता होने से 'अंतकरा-अन्तकराः' सकल कर्म को विनाश करने वाले 'भवंति-भवन्ति' होतें है ते-ते' यथावस्थित धर्म का प्रतिपादन करनेवाले 'दोहवि-योरपि' अपने और दूसरे के સાંભળીને પ્રતિભા સંપન અને શાસ્ત્રના અર્થને પ્રતિપાદન કરવાને સમર્થ બની જાય છે. સમ્યક જ્ઞાન વિગેરેની કામના વાળ થઈને તપ અને સંય. મને પ્રાપ્ત કરીને વિશુદ્ધ આહારથી શરીરને નિર્વાહ કરતો થકો મેક્ષગામી થઈ જાય છે. છેલછા હવે ગુરૂકુળમાં વાસ કરનારાઓના ધર્મનું પ્રતિપાદન કરવા માટે 'सखाइ धम्म च' या था 3थन ४२१ामा यावे छे. शाय- 'धम्मंच-धर्मच' श्रुतयारित्र ३५ यमन 'संखाइ-सख्याय' स सुद्धिथा पोते ने भी माने 'विय.गर ति-व्यागृणन्ति' पदेश छ. 'ते-ते' ना साधु 'बुद्धा हु-हुः बुद्ध।' त्राणे आगने पापा हवाथी 'अंतकरा-अन्तकराः' स मनो विनाश ४२॥ पाणा 'भवंति-भवन्ति' थाय छे. 'ते-ते' यथास्थित यमन प्रतिपादन ४२११ाणा 'दोहवि-द्वयोरपि' श्री सूत्रतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy