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________________ - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. ३. १४ प्रन्थस्वरूपनिरूपणम् ३९१ अन्वयार्थ:-(इह)-इह-अस्मिन् प्रवचने जिनशासने वा ज्ञातसंसारस्वभावः कश्चित् पुरुषः (गर्थ) ग्रन्थम् बाह्याभ्यन्तरधनधान्यादिकम् 'विहाय' विहायपरित्यज्य (उट्ठाय) उत्थाय-प्रव्रज्यां गृहीत्वा (सिक्खमाणो) शिक्षमाणः-शिक्षा-ग्रहगासेवनारूपाम् सम्यगासेवमानः (सुबंभचेरं) मुब्रह्मचर्यम्-सम्यग्रूपेण संपमम् (वसेज्जा) वसेत् -आचार्यसमीपे यावज्जीवनं वसेत् तथा (ओवायकारी) अवपातकारी गुर्वाज्ञापरिपालको भूत्वा (विणयं) विनयम् (सुसिक्खे) सुशिक्षेत्परिग्रहको 'विहाय-विहाय' छोडकर प्रव्रज्याको 'उट्ठाय-उत्थाय' ग्रहण करके 'सिक्खमाणो-शिक्षमाणः' ग्रहण और आसेवनरूप शिक्षा को करता हुआ 'सुबंभचेरं-सुब्रह्मचर्यम्' सम्यक् प्रकार से संयममें 'वसेज्जा-वसेत् स्थिर रहे तथा 'मोवायकारी-अवपातकारी' आचार्यादिकी आज्ञा का पालन करता हुआ 'विणयं-विनयं' विनयकी 'सुसिक्खेसुशिक्षेत्' शिक्षा का अभ्यास करें इस प्रकार 'जे-यः' जो पुरुष 'छेय-छेकः' संयम के पालन में निपुण होकर 'विप्पमायं-विप्रमादम्' कोई भी प्रकार का प्रमाद 'न कुज्जा-न कुर्यात्' न करें अर्थात् सुचारु रूपसे संयमका पालन करे ॥१॥ ___अन्वयार्थ-इस जिन शासन रूप जैनागम से संसार स्वभाव को जानने वाला पुरुष बाह्य और आभ्यन्तर धनधान्य लोभ क्रोधादि कषाय को छोडकर प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उद्यत होकर दीक्षा ग्रहण कर ग्रहणासेवना रूप शिक्षा का सम्पग्रूप आसेवन करते हुए आचार्य के समीप अच्छी प्रकार ब्रह्मचर्य रूप संयमका जीवनपर्यन्त २ 'विहाय-विहाय' छ।अन प्रय! 'उहाय-उत्थाय' अY ४शन मा सेवन ३५ शिक्षा ग्रहण ४२तो 'सुबंभचेरे-सुब्रह्मचर्यम्' सभ्य माथी सयभमां 'वसेज्जा-वसेत्' स्थि२२ तथा 'ओवायकारी-अवपातकारी' मायाय विगैरेनी माज्ञानु सन ४२। 28। 'विणयं-विनयम्' विनयनी 'सुसिक्खेमशिक्षेत शिक्षा सल्यास रे मारीत 'जे-यः' हे पु३५ 'छेय-छेकः' सयम पालन ३२वामा निपुण मनीने 'विप्पमाय-विप्रमादम्' छ ५Y - रना प्रभाह न कुज्जा-न कुर्यात्' न ४२ अर्थात् सभ्य प्राथी सयमन પાલન કરે છે? અન્વયાર્થ– આ જનશાસન રૂપ જેનાગમથી સંસારના સ્વભાવને જાણ વાવાળે પુરૂષે બાહ્ય અને આભ્યન્તર ધન ધાન્ય લેભ કોધાદિ કષાયોને છેડીને પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા માટે ઉદ્યમી થઈને દીક્ષા ગ્રહણ કરીને ગ્રહણસેવના રૂપ શિક્ષાનુ સમ્યક્ પ્રકારથી આસેવન કરીને આચાર્યની પાસે સારી श्री सूत्रतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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