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________________ - ---- - ३६२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-पेन्नामयं चेव तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाह, से पंडिएँ उत्तमपोगले 'से ॥१५॥ छाया-मज्ञामदं चैव तपोगदं च, निर्नामयेद् गोत्रमदं च भिक्षुः । आजीवगं चैव चतुर्थमाहुः, स पण्डित उत्तमपुद्गलः सः ॥१५॥ प्रज्ञा आदि मद नहीं करना चाहिये । यह दिखलाते हैं-'पन्नामयं चेव तवोमयं च' इत्यादि। ___ शब्दार्थ-'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'एण्णामयं चैव-प्रज्ञामदचैव' मैं ही पूर्वादिके ज्ञान को जानने वाला हूं इसप्रकार के ज्ञानमद को तथा 'तवोमयं-तपोमदं' हपके मदको मैं ही तपस्थी हूं इस प्रकार के अभि. मानको तथा 'गोयमयं च-गोत्रमदश्च' स्वकुल एवं जाति आदि के मद को तथा 'चउत्थं-चतुर्थम्' चौथा 'आजीवगं चेव-आजीवगश्चैव' आजीविकाके मद को 'णिण्णामए-निर्नामयेत्' त्यागकरे ऐसा करने वाला 'स-सा' वह साधु 'पंडिए-पण्डिता' बुद्धिमान 'उत्तमपोग्गले-उत्तम. पुद्गला' उत्तमभव्यात्मा 'माहु-आहुः' कहाजाता है ॥१५॥ वे प्रज्ञा विगैरेनी भ६ ४२३। न न त मतावा भाट ‘पन्नामयं चेव तपोमदंच' त्याहि गाथा 58 छ. शाय-भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'पण्णामयं चेव-प्रज्ञामदचैव' - पूर्वाहना ज्ञानने Myापा। छु. मा २नज्ञानमाने तथा 'तवोमय-तपोमद" तपना भहने-४ त५२वी छु. मावा ४२॥ निभानने तथा 'गोयमयं च गोत्रमदंच' पोताना ८१ तथा ति विगेरेना महने तथा 'नउत्थं-चतुर्थम्' याया 'आजीवगं चेव-आजीवकञ्चैव' ना भहने। 'णिण्णामए-निर्नामयेत्' त्या 3रे येवु ४२५पाणी 'से-सः' अर्थात् महने। त्या ४२वापात साधु 'पंडिए-पण्डितः' भुद्धिमान् 'उत्तमपोग्गले- उत्तमपुद्गलः' इत्तम भव्यात्मा 'आहु-आहुः' उपाय छे. ॥१५॥ श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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