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________________ ३५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अतो यः मत्रज्पामादायाऽपि गृहस्थकर्म जाति मदादिकं सावधर्म वा सेवते, स कर्म क्षपयितुं समर्थों न भवतीति भावार्थः ।।११।। मूलम्-णिकिंचणे भिक्खू सुलूहजीवी, जे गारवं होई सिंलोगगामी। आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुवेइ ॥१२॥ छाया-निष्किञ्चनो भिक्षु सुरूक्ष जीवी, यो गौरक्वान् भवति श्लोककामी। ___ आजीवमेतत्त्वबुद्धयमानः, पुनः पुनविपर्यासमुपैति ॥१२॥ वह समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए समर्थ नहीं होता कहा भी है 'जातिः कुलं' इत्यादि। धीर पुरुषों का कथन है कि जाति अथवा कुल जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं है । हे ज्ञानी ! ज्ञान और चारित्र ही आत्मा की रक्षाकरने में समर्थ होते हैं।' अतएव जो दीक्षा स्वीकार करके भी गृहस्थ के योग्य कार्य करता है या जाति मद आदि का सेवन करता है, वह कर्मों का क्षप करने में समर्थ नहीं होता है ॥११॥ 'णिकिंचणे भिक्खू' इत्यादि । शब्दार्थ-'जे भिक्खू-यो भिक्षुः' जो साधु 'णिकिंचणे-निकि चन:' बाह्यपरिग्रह से रहित अर्थात् द्रव्य आदि नहीं रखता है भाना क्षय ४२१॥भा समय 2 शतनथी. ह्यु' ५५ छे-'जाति:कुलं त्याल ધીર પુરૂષેનું કથન છે કે--જાતિ અથવા કુળ જીવની રક્ષા કરવામાં સમર્થ નથી. હે જ્ઞાની ! જ્ઞાન-અને ચારિત્ર જ આત્માને રક્ષા કરવામાં સમર્થ થાય છે કે તેથીજ જેઓ દિક્ષાને સ્વીકાર કરીને પણું ગુહસ્થને ગ્ય એવા કાર્યો કરે છે, અથવા જાતિ મદ આદિનું સેવન કરે છે, તે કર્મો ક્ષય કરવામાં સમર્થ થઈ શકતા નથી. ૧૧ાા 'णिकिंचणे भिक्खू याद Avt-'जे भिक्खू-ये भिक्षुः साधु 'णिकि चणे-निष्किचनः' मा परियडया २डित अर्थात द्रव्य विगैरे २१मता नथी. तथा 'सुलूहजीवी-सुरूक्ष श्रीसूत्रतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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