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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३१७ सओय धम्मं असओय सीलं',
संतिं असंति करिस्सामि पौउं॥१॥ छाया-याथातथ्यं तु मवेदयिष्यामि, ज्ञानप्रकारं पुरुषस्य जातम् ।
सतश्च धर्ममसतश्च शील, शनिमशान्ति च करिष्यामि प्रादुः ॥१॥ अन्वयार्थः- (आहत्तहीयं तु) याथातथ्य तु-परमार्थतत्त्वं तु 'पुरिसस्स' पुरुषस्य जीवस्य यत् (जायं) जातम्-उत्पन्नम् (नाणपगारं) ज्ञानप्रकारम्-ज्ञाना
शब्दार्थ-'आहत्तहीयं तु याथातत्थं तु' यथार्थ अर्थात् सच्चा तत्त्व 'पुरिसस्स-पुरुषस्य' जीव को जो 'जायं-जातम्' प्राप्त हुवा है तथा 'नाणप्पकार-ज्ञानप्रकारम्' ज्ञानके प्रकार अर्थात सम्यक् ज्ञान दर्शन और चारित्रका 'पवेयहस्सं-प्रवेदयिष्यामि' कथन करूंगा 'तु' शब्द से मिथ्यादृष्टियों के दोषों को भी कहूंगा 'सओ यसतश्च' चारित्रशील उत्तम साधुका 'धम्म-धर्मम्' श्रुतचारित्ररूप धर्म तथा 'सीलं-शोलम्' शील-स्वभाव तथा 'संति-शान्तिम्'सकल कर्मक्षयरूप शान्तिको-निवृत्तिको ‘पाउं करिस्सामि प्रादुः करिष्यामि' प्रकट करूंगा तथा 'असओ य-असतश्च' परतीर्थिकों का, अधर्माचरण, कुशील तथा 'असंत-अशान्तिम्' संसार का स्वरूप प्रगट करूंगा ॥१॥ ____ अन्वयार्थ- परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर जीव को वास्तविक रूप में उत्पन्न होने वाले सम्यग् ज्ञान सम्यग् दर्शन सम्यक चारित्र
शहाथ-आहत्तहीयं तु-याथातथ्य तु' यथार्थ मात सायु-तत्व 'पुरिसस्स-पुरुषस्य' ने 'जाय-जातम्' प्रात 22 छ तथा 'नाणप्पकार -ज्ञानप्रकारम्' ज्ञानना प्राश भात सभ्यज्ञान, शन मन यानि 'पवेयइस्सं-प्रवेदयिष्यामि ४थन ४२५ 'तु' श५४थी मिथ्यावाहियाना होषाने ५५] होश 'सओय-सतश्च' यात्रिशीत उत्तम साधुन। 'धम्म-धर्मम्' श्रत यारित्र ३५ ५ तथा 'सील-शीलम्' शीa-RAमा भने संति-शान्तिम सस भक्षय३५ शान्तिन-नितिने 'पाकरिस्सामि-प्रादुः करिष्यामि'ट ४रीश तथा 'असओ य-असतश्च' ५२तानि मर्भायरने तथा 'असंति: अशान्तिम्' संसारना २१३५ने प्रगट ४३१३ ॥१॥
અન્વયાર્થ–પરમાર્થ દષ્ટિથી વિચારતાં જીવને વાસ્તવિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સમ્યક્ જ્ઞાન સમ્યક્દર્શન સમ્યક્ ચારિત્રરૂપ જ્ઞાન પ્રકારનું નિરૂ
श्री सूत्रतांग सूत्र : 3