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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् २८७ अन्वयार्थ:-(जे) ये-केचित् (रक्खसा) राक्षसाः-राक्षसात्मनो ध्यन्तराः (जमलोइया) यमलौकिकाः-अम्बादयः परमाधार्मिकाः (वा) वा-अथवा (जे) येकेचन (सुरा) सुराः-देवाः सौधर्मादिवैमानिकदेवाः, उपलक्षाणाद् असुरा वाअसुरकुमारादि भवनवासिनः (य) च-चशब्दाद् ज्योतिष्कदेवाश्च (गंधवा) गन्धर्वा है 'वा-वा' अथवा 'जे-ये जो कोई 'सुरा-सुरा' सौधर्मादि वैमानिक देव उपलक्षणसे असुरकुमारादि भवनपति 'य-च' और 'गंधव्यागंधर्वाः' गंधर्व तथा 'काया-कायाः' पृथिवीकायादि छ जीवनीकाय 'य-च' और 'आगासगामी-आकाशगामिनः' पक्षीगण अथवा जिनको आकाश गमन की लब्धी प्राप्त हुई है ऐसे विद्याचारण जङ्घाचारण आदि तथा 'जे-ये' जो कोई 'पुढो सिया-पृथ्व्याश्रिताः' पृथ्वीके आश्र. यसे रहनेवाले पृथिव्यादि एकेन्द्रियादि पंचेद्रिय तक के सभी प्राणी है वे सब अपने आप किये कर्म से 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' बार बार 'विप्परि यासं-विपर्यासम्' घटीयन्त्र के जैसे परिभ्रमण को 'उति-उपयन्ति' प्राप्त होते हैं अर्थात् संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं ॥१३॥ ____ अन्वयार्थ-जो राक्षस अर्थात् एक प्रकार के व्यन्तर हैं, जो अम्ब आदि परमाधार्मिक है, या जो सौधर्म देवलोक आदि में रहने वाले वैमानिक देव हैं, उपलक्षण से असुरकुमार आदि भवनवासी हैं, 'च' छ 'वो-वा' ५५41 'जे-ये' २ । 'सुरा-सुराः' सौधमा वैमानि देव Sपक्षयी असु२४भा भवनपति 'य-च' म२ 'गधब्वा-गधर्वाः' मध तथा 'काया-कायाः' पृथ्वयाहि ५४२॥ नीयो 'य-च' भने 'आगासगामी-आकाशगामिनः' पक्षि समूह अथवा रसाने शमा पानी सम्धी प्राप्त थ छ मेवा विधाया२१ ४ाया२५ विगेरे तथा 'जे-ये' २७ 'पुढोसिया-पृथिव्याश्रिताः' पृथ्वीना पायथी २0१७ पृथिव्या6ि मेन्द्रियथा પંચેન્દ્રિય સુધીના બધા પ્રાણિયો છે, તેઓ બધા પિતે પિતાની મેળેજ કરેલા उभथा 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' पापा२ 'विप्परियास-विपर्यास म्' ३४यनी भा५४ परिश्रमाने 'उति-उपयन्ति' प्राप्त थाय छ, अर्थात् ससाરમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે એટલે કે સંસારમાં જ ભટક્યા કરે છે. ૧૩ અન્વયાર્થ—જે કઈ રાક્ષસ અર્થાત એક પ્રકારના વ્યંતર જેઓ અમ્બ વિગેરે પરમધાર્મિક છે, અથવા જે સૌધર્મ આદિ દેવલેકમાં રહેવાવાળા વૈમાનિક દેવ છે, ઉપલક્ષણથી અસુરકુમાર વિગેરે ભવનવાસી છે, “1' શબ્દથી તિક છે, તથા ગંધર્વ અને વિદ્યાધર છે, તથા છ ઇવનિ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૩
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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