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________________ २११ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ११ मोक्षस्वरूपनिरूपणम् ध्यानं ध्यायन्ति (अखेयन्ना) अखेदज्ञाः-परदुःखमजानानाः (असमाहिया) अस माहिता-मोक्षमार्गाद् दूरे वर्तन्ते इति ॥२६॥ ___टीका--'ते य' ते च-पूर्वोक्ता वादिनो बौद्धादयः-जीवाऽजीवपदार्थ. स्वरूपान् परमार्थतः-अजानानाः (बीओदगं चेव) बीजोदकमेव-बीजानि-शालि. गोमधूमादीनि, उदकानि च-सचित्तजलानि अत्रैव शब्दोऽप्यर्थकः, तथा च 'तमुहिस्साय' तानुद्दिश्य तदनुयायिभिहस्थैः 'जं कडं' यत्कृतम्, आहारपानादिकम्, तत्सर्वमन्नं शीत जलादिकं च, तदपि 'भोच्चा' भुक्त्वा तदनन्तरम्-सात. ऋद्धयादि गौरवासक्ताः पुनस्तदनाप्त्यर्थम् 'झाणं' ध्यानम्-आर्त्तम् "झियायंति' ध्यायन्ति, आधार्मिकं सावद्यमाहारमभ्यवहृत्य, पुनः सातऋद्धिरसगौरवपाप्त्यर्थ ध्यानम्-आर्तरौद्रादिकं ध्यायति, न हि तद्ध्यानमैहिकसुखैषिणां दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहवतां तेषां धर्मध्यानं भवति तदुक्तम् 'ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गर्वा प्रेष्य जनस्य च । यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ॥१॥ ध्याते हैं। परकीय पीड़ा को न जानने वाले वे मोक्षमार्ग से दूर रहते हैं ॥२६॥ टीकार्थ--जीव अजीव आदि तत्वों को पारमार्थिक रूपसे नहीं जानते हुए पूर्वोक्त बौद्ध तथा दण्डी आदि वादी सचित्त चीजों का, सचित्त जल का तथा भक्तों द्वारा उन्हीं के उद्देश्य से बनाये गये आहार आदि का उपभोग करते हैं और उसकी प्राप्ति के लिए आतध्यान करते हैं अथवा उद्दिष्ट आहार आदि का सेवन करके मान प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए आर्त रौद्र आदि ध्यान ध्याते हैं। वस्तुतः उन धनार्थियों का वह ध्यान धर्मध्यान नहीं होता है। कहा भी है-ग्रामक्षेत्र गृहादीनां' इत्यादि। जिसमें ग्राम, क्षेत्र, गृह, गौ, मृत्यजन आदि का परिग्रह देखा जाता है, वहां शुभ ध्यान केसे हो सकती हैं ॥१॥ ટીકાર્થ–- જીવ, અજીવ વિગેરે તને પરમાર્થિક પણાથી ન જાણુતા એવા પૂર્વોક્ત બોદ્ધો તથા દંડી વિગેરે વાદવાળા સચિત્ત બીજેને, સચિત્ત પાણીને, તથા ભક્તોએ તેમને ઉદ્દેશીને બનાવવામાં આવેલ આહાર વિગેરેનો ઉપભોગ કરે છે. અને તેની પ્રાપ્તિ માટે– આર્તધ્યાન અને રૌદ્ર વિગેરે સ્થાન ધરે છે. ખરી રીતે તે ધનની કામના વાળાઓનું તે ધ્યાન ધર્મધ્યાન હેતું नथी. बु छ है-'ग्रामक्षेत्रग्रहादीनां' त्या भागाम, क्षेत्र, घर, ગા, સેવક વર્ગ, વિગેરેનો પરિગ્રહ જોવામાં આવે છે. ત્યાં શુભધ્યાન કેવી રીતે થઈ શકે છે श्री सूत्रतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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