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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १० समाधिस्वरूपनिरूपणम् १४३ स धनधान्यादी ममत्ववान पापकर्मणो न विमेति । रात्रिन्दिवम्-धनचिन्तायो मग्नः, स्वात्मानमजरामरवद् मन्यमानो धनासक्तो दुःखमनु भवतीति भावः॥१८॥ मूलम्-जहाहि वित्तं पैसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लालप्पई सेऽवि य ऐइ मोहं, अन्ने जैणा तस्स हरति वित्त ॥१९॥ छाया-जहाहि वित्तं च पशूच सर्वान् , ये बान्धवा ये च पियाच मित्राणि । लालप्यते सोऽपिच एति मोहम् , अन्ये जनास्तस्य हरन्ति वित्तम्। १९॥ से नहीं डरता है। रात दिन की चिन्ता में मग्न, अपने को अजर अमर समझ कर धन में आसक्त हो कर दुःख का अनुभव करता है ॥१८॥ 'जहाहि वित्तं' इत्यादि। शब्दार्थ-'वित्तं सव्वं पसचोय जहाहि-वित्तं सर्व पशवश्च जहाहि' धन तथा पशु आदि सब का त्याग करो तथा 'जे बंधवा जे य पिया य मित्ता-ये बांधवाः ये च प्रियाश्च मित्राणि' जो बांधव और प्रिय मित्र हैं 'से विय लालप्पई मोहं एई-सोऽपि च लालप्यते मोहमे ति' वे भी पुनः पुनः अत्यंत मोह उत्पन्न कराता है और जो अत्यंत क्लेशसे संपादन किया है ऐसे 'तेसिं-तस्य' उनका 'वित्तं-वित्तम्' धनको 'अन्ने जणा हरंतिअन्ये जन हरन्ति' उसके मरने पर दूसरे लोग हर लेते हैं ॥१९॥ કર્મથી ડરતે નથી. રાત દિવસ ધનની ચિંતામાં મગ્ન, અને પિતાને અજર અમર માનીને ધનમાં જ આસક્ત રહીને દુઃખને અનુભવ કરે છે. ૧૮ 'जहाहि वित्तं' त्या शा---'वित्तं सवं पसवो य जहाहि-वित्तं सर्व पशुंच जहाहि' धन तथा पशु विगैरे अधाने त्यास रे। तया 'जं बंधवा जे य पिया य मिता-ये बान्धवाः ये च प्रियाश मित्राणि' २ मांधवो मन प्रिय भित्री छ, ‘से वि लालपई मोह एई-सोऽपि च लालप्यते मोहमे ति' तमे। ५४ पावा२ मत मोड उत्पन्न ४२ छे. सन २ मत्यतम ५१४ मेगवेल छे. या 'तेसिं-तस्य' तेना 'वित्तं-वित्तम्' धनने 'अन्ने जगा हरति-अन्ये जनाः हरन्ति' तेना भरण પછી બીજા લેકે હરણ કરી લે છે. ૧લા श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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