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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ.७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम्
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छाया-अपि हन्यमानः फलकावतष्टः समागमं कांक्षत्यन्तकस्य ।।
निधूय कर्म न प्रपञ्चमुपैति अक्षक्षय इव शकट मिति ब्रवीमि ।।३०॥ अन्वयार्थः-(अविहम्ममाणे) साधुः अपि हन्यमानः उपसर्गादिभिः पीडयमानोपि (फलगावतही) फलकावतष्ट:-फलकवत् तनूकृतः (अंतकस्स समागम
और कहते हैं--‘अवि हम्ममाणे' इत्यादि।
शब्दार्थ-- 'अविहम्ममाणे-अपि हन्यमान; साधु परीषह एवं उप सगों के द्वारा पीडा पाता हुभा भी उसे सहन करे फलगावतट्ठी-फल कावतष्टः' जैसे काष्ठ की पटिया दोनों तरफसे छोली जाती हुई रागद्वेष नहीं करती है उसीप्रकार बाद्य एवं अभ्यन्तर तपसे कष्ट पाता हुआ भी रागद्वेष न करे 'अंतकरस समागर्म कंखति-अन्तकस्य समागम कांक्षति' मृत्यु के आनेकी प्रतीक्षा करे ‘णिधूय कम्म-कर्म निर्धूय' इस प्रकार से कर्म को दूर करके साधु ‘ण पवंचुवेइ-न प्रपञ्चम् उपैति' जन्म, मरण और रोग, शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमिव' जैसे अक्ष (धुरा) के टूट जाने ले गाडी आगे नहीं चलती है तिबेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूं ॥३०॥ ___ अन्वयार्थ--उपसर्गों द्वारा पीड़ित होने पर भी साधु काष्ठ के पटिये के जैसे रागद्वेष न करे, किन्तु समभाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करे।
सूत्रा२ साधुभाने हे छ-'अवि हम्ममाणे' त्याह
शा-'अवि हम्ममाणे-अपि हन्यमानः' साधु परीष भने उपसर्गा द्वारा पी। पाभीने ५॥ तेन सहन रे फलगावतढी-फलकावतष्टः' म લાકડાના પાટિયા બને બાજુથી છલાવા છતાં પણ રાગ દ્વેષ કરતા નથી એજ પ્રમાણે બાહ્ય અને આત્યંતર તપથી કષ્ટ પામીને પણ રાગદ્વેષ ન કરે 'अंतकस्स समागमं कंखति-अंतकस्य समागमं कांक्षति' ५२'तु मात मावानी २६ जुमे 'णिधूय कम्म-कर्म निर्धूय' मा रीतथी भने ६२ ४ीन साधु 'ण पवंचुवेइ-न प्रयञ्चम् उपैत' म, भ२६ मने शेय, शे, विगैरने प्रात ४२ता नथी 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमिव' म सक्ष देता धेांसना तूटियाथी गाडी मागणयाली शती नथी. 'तिवेमि-इति ब्रवीमि' એ પ્રમાણે હું કહું છું ૩૦
સૂત્રાર્થ– ઉપસર્ગો દ્વારા પીડિત થવાનો પ્રસંગ આવી પડે, તે પણ સાધુએ કાષ્ટના પાટિયાની જેમ રાગદ્વેષ કર જોઈએ નહીં, પરંતુ સમભા.
શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨