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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१३ 'आयगुत्ते' आत्मगुप्तः-अशुभाऽनुष्ठानात्-गुप्तो रक्षित आत्मा येन स आत्मगुप्ता, मनोवाकायैर्गुप्तः । 'तसे या वसांश्च च शब्दात् स्थावरांश्च दट्टुं दृष्ट्वा परिज्ञाय तेऽपघातकारिणी क्रिया पडिसंहरेज्जा' प्रतिसंहरेत् परित्यजेदित्यर्थः ॥२०॥ इतः परं स्वयूथिकान कुशीलानुद्दिश्य कथयति सत्रकारः-'जे धम्म' इत्यादि। मूलम्-जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे वियडेण साहहु य जे सिणाई। जे धोई लूसयईव वत्थं अहोहु से गोगणियस्स दूरे॥२१॥ छाया--यो धर्मलब्धं विनिधाय भुङ्के विकटेन संहत्य च यः स्नाति । यो धावति चयति च वस्त्रमथाहुः स नाग्न्यस्य दूरम् ॥२१॥ विरत, मन वृचन काय से अपनी आत्मा को अशुभ अनुष्ठान से गोपन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों को जान कर उनका उपघात करने वाली क्रिया का त्याग करें ॥२०॥ ___ इसके पश्चात् स्वयूथिक कुशीलों को लक्ष्य करके सूत्रकार कहते हैं-'जे धम्म' इत्यादि। ___शब्दार्थ-'जे-यः' जो साधुनामधारी 'धम्मलद्धं-धर्मलब्धम्' धर्मसे मिला हुआ अर्थात उद्देशक, क्रीत आदि दोषों से रहित आहारका विणि. हाय-चिनिधाय' छोडकर 'भुंजे-भुंक्ते' उत्तम प्रकार का भोजन करता है तथा 'जे-या' जो साधु 'वियडेण-विकटेन' अचित्त जलसे भी સમ્યજ્ઞાનથી યુક્ત, પાપના અનુષ્ઠાનથી વિરત (નિવૃત્ત) અને મન, વચન અને કાયાથી પિતાના આત્માનું અશુભ અનુષ્ઠાનથી ગેપન કરનાર (આત્મગુમ પુરુષ) ત્રસ અને સ્થાવર જીવને જાણીને તેમના ઉપઘાત (હિંસા) કરનારી કિયાઓને ત્યાગ કરે. ૨૦ હવે સૂત્રકાર સ્વયૂથિક કુશીલેને અનુલક્ષીને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે छ-'जे धम्म' त्याह शा- 'जे-ये' २ साधु नाम धारी। 'धम्मलद्ध-धर्मलब्धम्' या भनेता अर्थात् ७६५४, sीत, विगेरे होपो बनाना माहारने 'विणिहायविनिधाय' छ। 'भुंजे-भुंक्ते' उत्तम प्रा२नुं न ४२ छ, तथा 'जे-ये' २ साधुमे। 'वियडेण-विकटेन' मथित्त थी ५५ 'साहटु-संहृत्य' मोनु શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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