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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६११ अन्वयार्थः- - (कम्मी जगा) कर्मिणः सापाः जन्तवः (पुढो) पृथक पृथक (यणंति) स्तनंति रुदन्ति (लुप्पंति) लुप्यन्ते खड्गादिना छिद्यन्ते (तसति) वस्यन्ति-भयत्रस्ताः पलायन्ते (तम्हा) तस्मात् कारणात् (विऊभिक्खु) विद्वान् भिक्षुः (विरतो) विरतः पापानुष्ठानात् (मायगुत्ते) आत्मगुप्ता-मनोवाकाप. गुप्तः (तसे य द९) प्रसान स्थावरांश्च दृष्ट्वा परिज्ञाय (पडिसंदरेजा) माणिपिराधनातो निवृत्तो भवेदिति ॥२०॥ करते हैं, यह दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'थणंति' इत्यादि। शब्दार्थ-'कम्मी जगा-कर्मिणः जन्तवः' पाप कर्म करनेवाले प्राणी 'पुढो-पृथक' अलग अलग 'थणंति-स्तनंति' रोदन करते है 'लुप्पंति-लुप्यन्ते' तल गार आदिके द्वारा छेदन किये जाते हैं 'तसंतिध्यस्यन्ति' डरते हैं तम्हा-तस्मात्' इसलिये 'विउ भिक्खू-विद्वान् मिक्षुः विद्वान् मुनि 'विरतो-विरत:' पाप से निवृत्त 'आयगुत्ते-आत्मगुप्ततथा आत्मा की रक्षा करने वाला बने 'तसे य दटूर्छ-त्रासांच दृष्ट्वा' बस और स्थावर प्राणी को देखकर 'पडिसंहरेज्जा-प्रतिसंहरेत् उनके घातकी क्रिया से निवृत्त हो जाय ॥२०॥ अन्वयार्थ--पापी प्राणी रुदन करते हैं, छेदे जाते हैं, त्रास पाते हैं, इस कारण विद्वान्, पाप से विरत एवं आत्मगुप्त पुरुष त्रस और स्थावर जीवों को जानकर जीवहिंसा से निवृत्त हो जाय ॥२०॥ જ અનુભવ કરે છે. એ વાત બતાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે'थणंत्ति' छत्याह शा-'कम्मी जगा-कर्मिणः जन्तवः' ५५ ४ ४२वा प्रालीयो 'पुढो-पृथक्' हा लूह 'थणंति-स्तनन्ति' ३४न रे छ. 'लुप्पंति-लुप्यन्ते' तसार विगेरे छन ४२शय छे. 'तसति-यस्यन्ति' त्रास पामे छ. 'तम्हा-तस्मात' तथा 'विउ भिक्खू-विद्वान् भिक्षुः' विद्वान् मुनि 'विरतो-विरतः' ५५था निवृत्त थ/ 'आयगुत्ते-आत्मगुप्तः' तथा मामानी रक्षा ४२वावामा मन 'तसेरा दट्ठ-सांश्च-दृष्ट्वा' त्रस भने स्था१२ प्राणान इन 'पहिसंहरिज-पडि संहरेत्' ताना घातनी जियाथी निवृत्त 25 य. ॥२०॥ સૂત્રાર્થ–પાપી પ્રાણીઓને રુદન કરવું પડે છે, તેમનું છેદન કરાય છે, તેમને ત્રાસ સહન કર પડે છે, તે કારણે વિદ્વાન્ પુરુષે પાપમાંથી નિવૃત્ત થવું, અને આત્મગુપ્ત પુરુષ ત્રસ અને સ્થાવર જીવને જાણીને જીવહિ સામાં પ્રવૃત્ત ન થાય અર્થાત્ જીવહિંસાને ત્યાગ કરે. ર૦ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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