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समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.
परतीर्थिकैः पीडोत्पादनम्
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सुव्रतमपि अनार्यपरिसरे भ्रमन्तम् अयं चोर इति मत्वा कदर्थयन्ति रज्वादिना बध्नन्ति, क्रोधमधानकटुवचनैरसंयन्ति चेति ॥१५॥
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पुनरप्याह 'तत्थ दंडेण' मित्यादि ।
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मूलम् - तत्थ दंडेण संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा ।
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नातीणं सरई वाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥ १६ ॥
छाया - तत्र दण्डेन संबीतो मुष्टिनाऽथ फलेन वा ।
ज्ञातीनां स्मरति बालः स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी ॥ १६ ॥
अभिप्राय यह है कि अनार्य लोग देश की सीमा में विहार करने वाले सुव्रत साधु को भी चोर समझकर कष्ट पहुंचाते हैं, रस्सी आदि से बांधते हैं और क्रोधप्रधान कटुक वचन कहकर उसकी भर्त्सना करते हैं ||१५||
पुनः कहते हैं- 'तत्थ दंडेन' इत्यादि ।
शब्दार्थ - - ' तत्थ - तत्र' वहां अर्थात् अनार्य क्षेत्रकी सीमा में विचरते हुए उन मुनिको 'दंडेण दण्डेन' लाठी से 'मुट्टिणा - मुष्टिना' मुक्का से अदुवा अथवा ' अथवा 'फलेण- फलेन' फल से 'संवीते - संवीत' ताडित किया हुआ 'वाले वालः' अज्ञानी पुरुष 'क्रुद्धगामिणी- क्रुद्रगामिनी' क्रोधित होकर घर से निकलकर भागने वाली 'इत्थीव-स्त्रीव' स्त्री के जैसे 'नातीणंनातीनां' अपने स्वजन वर्ग को 'सरई - स्मरति' स्मरण करता है ॥१६॥
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આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે અનાય લેાકેાના પ્રદેશની સીમા પાસેથી વિહાર કરનારા સુવ્રતધારી સાધુને પણ ચાર આદિ સમજીને અનાય લેાક ઢારડા વડે ખાંધીને મારે છે તથા કટુ શબ્દો ખેલીને તેમની ભત્સ ના
हरे छे. गाथा १५।।
આ પ્રકારના પરીષહેા આવી પડે ત્યારે અલ્પસત્ત્વ સાધુ પર તેની કેવી असर थाय छे, ते सूत्रार अरे छे. - ' तत्थ दंडेन' छत्याहि
शब्दार्थ—‘तत्थ-तत्र' त्यां अर्थात् अनार्यक्षेत्रनी सीमाभां (हृदभां) इश्तां ते भुनीने 'दंडेग - दण्डेन' साडी थी 'मुट्टिणा - मुष्टिना' भुखाथी 'अदुवा - अथवा ' अथवा फलेण- फलेन' इथी 'संवीते संवीत:' भारवामां आवेल 'बाले - बाल : ' अज्ञानी ५३ष 'कुद्धगामिणी- क्रुद्धगामिनी' अधित थर्धने घरेथी निउजीने लागवावाजी 'इत्थीव - स्त्रीव' खीनी प्रेम 'नातीणं ज्ञातीनां' पोताना स्वन वर्ग 'Arg-cfa' zuzy 2 3. 119811
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨