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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ इ. १ संयमरय रूक्षत्वनिरूपणम् १
संयमस्य रूक्षता प्रतिपादयति सूत्रकारः-'जया हेमंत' इत्यादि । मूलम्-जया हेमंतमासंमि सीतं फुसई सम्बग्गं ।
तस्थ मंदा विसीयंति रजहीणाव खत्तिया ॥४॥ छाया--यदा हेमन्तमासे शीतं स्पृशति सर्शगम् ।
तत्र मन्दा विषीदन्ति राज्यहीना इव क्षत्रियाः ॥४॥ अन्वयार्थ:--(जया) यदा येन प्रकारेण (हेमंतमासंमि) हेमंतमासे हेमन्तऋतौ-पोषमासे (सीत) शीतं-शैत्यं (सव्वग्गं) सर्वागं प्रतिकूलतया (फुसइ) स्पृशति (तत्थ) तत्र तदा (मंदा) मंदा-जडा:-गुरुकर्माणः (रज्जहीणा) राज्यहीना-राज्य. भ्रष्टाः (खत्तियाव) क्षत्रिया इव (विसीयंति) विषीदंति-विषादमनुभवन्तीति ॥४॥ और उपसर्ग की प्राप्ति होने पर वह गुरुकर्मा एवं अल्पसत्व साधु चारित्र को भंग कर देता है॥३॥
सूत्रकार अब संयम की रूक्षता का प्रतिपादन करते हैं-'जया हेमंत' इत्यादि।
शब्दार्थ- जया-यदा' जब 'हेमंतमासंमि'-हेमन्तमासे' हेमन्त ऋतु में अर्थात् पोषमहीने में 'सीतं-शीतम्' ठंडी 'सव्वंगंसर्वांगम्' सर्वाङ्गको 'फुसह-स्पृशति' स्पर्शकरती है 'तत्थ-तत्र' तब 'मंदा-मंदाः' कायर पुरुष 'रज्जहीणा-राज्यहीनाः' राज्य भ्रष्ट 'खत्तिया व-क्षत्रिया इच' क्षत्रीय के जैसे 'विसीयंति-विषीदंति' विषाद को प्राप्त होते हैं ॥४॥
अन्वयार्थ--जब हेमन्त मास में अर्थात् पौष के महीने में पूरी तरह शीत का स्पर्श होता है तब भारी कर्मों वाले माद साधु राज्य से भ्रष्ठ हुए क्षत्रियों के जैसे विषाद का अनुभव करते हैं ॥४॥ માને છે. જ્યારે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે, ત્યારે તે ગુરુકમાં અને અલ્પસત્વ સાધુ ચારિત્રને ભંગ કરી નાખે છે. એવા
वे सूत्रा२ सयभनी ३क्षतानु प्रतिपाइन ४२ छे-'जया हेमंत' त्याल
शहाथ-'जया-यदा' न्यारे 'हेमंतमासंमि-हेमन्तमासे' हेमन्त ऋतमा मात पाप महीनामा 'सीतं-शीतम्' 30 'सव्वग्गं-सर्वागम्' सर्वागने फसह -स्पृशति' २५ ४२ छे. 'तत्थ-तत्र' त्यारे 'मंदा-मंडाः' ५स(१ ५३५ रज्जहिणा-राज्यहिनाः' २५ प्रष्ट 'खत्तियाव-क्षत्रियाइव' क्षत्रियनी 24। 'विसीयति -विषीदंति' विमान प्रान्त थाय छे. ॥४॥
સૂત્રાર્થ-જ્યારે હેમન્ત ઋતુમાં–પિષ માસમાં ભયંકર ઠંડીને અનુભવ કરવું પડે છે, ત્યારે ગુરુકર્મા મંદ (અજ્ઞાની) સાધુ પદભ્રષ્ટ થયેલા ક્ષત્રિયેની જેમ વિષાદનો અનુભવ કરે છે. પાકા
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨