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________________ १८८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे व्यवस्थिताः । ते हि अनुकूलोपसर्गः महाहदवत् क्षोभरहिता भवन्ति । अन्ये तु विष यामिलाषिणो ललनादिपरीपहेर्जिताः संसारे अङ्गारपतितमीनवद् रागाग्निना दुखमाना अवतिष्ठन्ते इति ॥१७॥ ये ललनापरीषहेण पराजिताः तेषां कीदृशं फलं भवतीति दर्शयितुं सूत्रकार उपक्रमते-'एए ओघं' इत्यादि । मूलम्-एएं ओघ तरिस्संति समुदं ववहारिणो। जत्थ पाणा विसनासि किच्चती सर्यकम्मुणा॥१८॥ छाया-एते ओघं तरिष्यन्ति समुद्र व्यवहारिणः । यत्र माणा विषण्णाः सन्तः कृत्यन्ते स्वककमणा ॥१८॥ रहते हैं । जो इनसे विपरीत वृत्तिवाले क्षुद्र पुरुष होते हैं विषयों के अभिलाषी और स्त्री परीषह आदि से पराजित होते हैं और परिणामतः अंगार में पडे हुए मीन की तरह संसाररूपी अंगार से जलते रहते हैं॥१७॥ जो स्त्री परीषह से पराजित होते हैं, उन्हें किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, यह दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'एए ओघं' इत्यादि। शब्दार्थ--'एए-एते' अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतनेवाले ये पूर्वोक्त संयमी पुरुष 'ओघं-ओघं' चातुर्गतिक संसार को 'तरिस्संति-तरिष्यन्ति' पार करेंगे जैसे 'समुई-समुद्रम् ' समुद्रको 'ववहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापार करनेवाले वणिकूजन पार करते हैं 'जस्थ-यत्र' जिस संसार में विसन्नासि-विषण्णासन्तः' पडे हुए 'पाणाप्राणा' प्राणी-जीव 'सयकम्मणा-स्वकर्मणा' अपने कर्मों के बलसे 'किच्चंति--कृत्यन्ते' पीडित किये जाते हैं ॥१८॥ સમાન સ્થિર રહે છે. પરંતુ જે પુરુષે તેમના કરતાં વિપરીત વૃત્તિવાળા હોય છે તેઓ વિષમાં આસક્ત રહે છે. એવા પુરુષ સ્ત્રી પરીષહ આદિ દ્વારા પરાજિત થાય છે. તેને પરિણામે તેઓ અંગારમાં પડેલ માછલાની માફક સંસારરૂપી અગારા વડે શેકાતા રહે છે. ૧ળા જે ક્ષુદ્ર પુરુ પરીષહ દ્વારા પરાજિત થાય છે તેમને કેવું ફલ लोग ५ छ, त सूत्रा२ ३ ४ ३ छ-.'एए ओघ' त्याह हा-'एए-एते' भनु भने प्रति ५सरि ताणामा yalsत सयभी ५३५ 'ओघं-ओघ' या२ अतिवास सारने तरिस्संति-तरिष्यन्ति' पार ७२री २वी शत 'समुद्दे-समुद्रम्' समुद्रने 'ववहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापार ४२३१malgaon २ रे छे, 'जत्थ-यत्र'२ ससारमा 'विसन्नासिविषण्णाः सन्तः' ५ 'पाणा-प्राणा:' प्राणी-04 'सयकम्मुणा-स्वकर्मणा' घाताना ना थी 'किच्चंति-कत्यन्ते' मि ३२१ामां आवे छे. ॥१८॥ - - શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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