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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीर्थिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११३ तथा - साधुस्वरूपधारणात प्रब्रजिताश्चेति उभयपक्ष सेवित्वम् । यद्वा-स्वतोऽसदनष्ठानम्, सदनुष्ठानकर्तॄणां निन्दनमिति पक्षद्वयं सेवध्वम् । एवं रूपेण - 'परिभा सेज्जा' परिभाषेत, भिक्षुस्वानिति भावः ॥ ११ ॥ पुनरन्तरमाह - 'तुम्भे' इत्यादि । १०० मूलम् - तुभे भुंजह पाएसु गिलाणो अभिहडंमि या । तं च वीओदंगं भोच्चा तमुद्दिस्सादि जे कंडे ॥१२॥ छाया -- यूयं शुद्धध्वं पात्रेषु ग्लानस्य अभ्याहृते च यत् । तं च वीजोदकं भुक्त्वा तमुद्दिश्यादि यत्कृतम् ॥ १२॥ आदि आहार करने के कारण गृहस्थपक्ष का सेवन कर रहे हो और साधु का रूप धारण करने तथा दीक्षित होने के कारण साधु पक्ष का सेवन करते हो, इस प्रकार द्विपक्ष सेवी हो । अथवा स्वयं तो असत् आचरण करते हो और सत् आचरण करने वालों की निन्दा करते हो, इस कारण भी दोनों पक्षों के सेवन करने वाले हो । इस प्रकार साधु उन आक्षेप कर्त्ताओं को उत्तर देवें ॥ ११ ॥ पुनः कहते हैं- 'तुम्भे' इत्यादि । शब्दार्थ- 'तुभे यूयम्' आपलोग 'पारसु पात्रेषु' कांसे आदि के पात्रों में 'भुंजह - भुध्वम्' भोजन करते हैं तथा 'गिलाणो-ग्लानस्य' रोगी साधु के लिए 'अभिहडंमिया - अभ्याहृते यत्' गृहस्थों द्वारा जो भोजन मंगवाते हैं 'तं च यीओदगं तं च योजोदकम् ' सो आप बीज और कच्चे जल का 'भोच्या भुक्त्या' उपभोग करके तथा 'समुद्दिस्सादि સેવન કરી રહ્યા છે, અને સાધુના વેષ ધારણ કરેલા હેાવાથી તથા દીક્ષિત હાવાને કારણે આપ સાધુનું સેવન કરી રહ્યા છે--આ પ્રકારે આપ દ્વિપક્ષનુ' સેવન કરનારા છે. અને સત્ આચરણની નિંદા કરી છે, તે કારણે તમે બન્ને પક્ષેાનુ' સેવન કરનાર; છે. તે આક્ષેપ કરનારાઓને સાધુએ આ પ્રકારના ઉત્તર આપવે જોઇએ, ૧૧૫ वजी तेभने भेवो भवाण आप शब्दार्थ' - 'तुब्भे- यूयम्' आप बेोहैं। पात्रोमा 'भुजह-भुङ्क्ष्ाम्' लोभन छ।, रोगी साधुना भाटे लोन 'अभिहडंमि या - अभ्याहृते यत्' गृहस्थाना द्वारा ने भगावे छे. 'तच बीओदगं- तंच बीजोदकम् ' आय ते मी मने आया पानी 'पारसु - पात्रेसु' असा वगेरेना तथा 'गिलाणो - ग्लानस्य' શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨ है- 'तुब्भे' छत्याहि
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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