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________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. २ अन्यतीर्थिकोक्ताक्षेपोत्तरम् १११ यथा गृहस्थाः, यथोक्तकर्मानुष्ठानात् चातुर्विधकसंसारसागरस्य पारगा न भवन्ति । तथा भवन्तोऽपि साधुकल्पाः - गृहस्यतुल्यतया संसारातिक्रमणेऽसमर्थां एवेति आक्षेपकर्त्तरभिपायः इति ॥ १० ॥ मूलम् - अह ते परिभासेज भिक्खू मोक्खविसारए । एवं तुभे पभांसंता दुपक्खं चेव सेवहं ॥११॥ छाया -- अथ तान् परिभाषेत भिक्षुर्मोक्षविशारदः । एवं यूयं प्रभाषमाणा दु:पक्षं चैत्र सेवध्वम् ॥११॥ अन्वयार्थ - - ( अह) अथ = अनन्तरं (ते) तान् प्रतिकूलत्वेनोपस्थितान् पुरुपान् (भिक्खू ) भिक्षुः = साधुः (मोक्खविसारए) मोक्षविशारदः = मोक्षमार्गनहीं होते, उसी प्रकार आप साधु के समान रहते हुए भी गृहस्थों के सदृश अनुष्ठान करने के कारण संसार को पार करने में समर्थ नहीं हैं। ऐसा आक्षेप करने वालों का अभिप्राय है ॥ १० ॥ शब्दार्थ - 'अह - अथ' इसके पश्चात् 'ते - तान्' उस अन्य तीर्थिकों से 'भिक्खू - भिक्षुः' साधु 'मोक्खविसारए - मोक्षविशारदः' मोक्षविशारद- अर्थात् ज्ञानदर्शन और चारित्र की प्ररूपणा करने वाला 'परिभासेज्जा - परिभाषेत ' कहे कि 'एवं एवम्' इस प्रकार 'पमासंता - प्रभाषमाणाः' कहते हुए 'तुम्भे- यूयं' आप लोग 'दुपक्खंचेव - दुष्पक्ष' चैव' दो पक्ष का राग और हेयात्मक 'सेवह-सेवध्वम्' सेवन करते हैं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ - मोक्षमार्ग में कुशल भिक्षु उपर्युक्त प्रकार से भाषण करने वालों से इस प्रकार कहे - इस प्रकार भाषण करते हुए तुम लोग સાગર તરી જવાને અસમર્થ હાય છે, એજ પ્રમાણે સાધુ રૂપે રહેવા છતા તમે ગૃહસ્થના જેવું જ આચરણ કરનારા હાવાને કારણે સૌંસાર સાગરને તરી જવાને અસમર્થ છે.' ।૧૦ના शब्दार्थ–‘अहं—अथ' खाना पछी ते तानू' ते अन्य तीर्थाने 'भिक्खु - भिक्षुः ' साधु 'मोक्खविसारए - मोक्षविशारदः' भोक्ष विशारह अर्थात् ज्ञान दर्शन भने शास्त्रिनी प्र३या अश्वावाजा 'परिभासेज्ज - परिभाषेत' एवं - एवम्' या प्रकारे पन्भासंता - प्रभाषमाणाः तां 'तुम्भे यूयं' आप बेाहै। मक्खं चेव - goपक्षं चैत्र' मे पक्षना हेय मने उपाडेय मे मे पक्षने 'सेबह - सेवध्वम्' सेवन ४२वावाला छे. ॥११॥ સૂત્રા—માને માગે આગળ વધવામાં કુશળ સાધુએ પૂર્વોક્ત આક્ષેપેા કરનાર લેાકેાને આ પ્રમાણે જવાબ આપવા જોઇએ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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