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________________ ५३४ सूत्रकताइसने अन्वयार्थ (जो) यः कश्चित् पुरुषः (परं जणं) परं जन-परमन्यं जनम् पुरुषम् (परिभवई) परिभवति= तिरस्करोति, स (संसारे) संसारे चातुर्गतिके संसारे (महं) महत् चिरकालं यावत् (परिवत्तइ) परिवर्तते संसारे परिभ्रमतीत्यर्थः, 'अदु अथवा अतः इत्यर्थः, (इंखिणिया उ) इक्षणिका तु= परनिन्दा, (पाविया) पापिका पापोत्पादिकेत्यर्थः, (इति) इति (संखाय) संखाय=ज्ञात्वा (मुणी) मुनिः (गो) न (मज्जइ) माद्यति-स्वगुणाहंकारं न करोतीति ॥२॥ टीका 'जो' यः पुरुषः परंजणं परं जनम् अन्यं पुरुषम् 'परिभवई परिभवति अन्वयार्थ जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है, अतएव परनिन्दा पापजनक है । ऐसा जानकर मुनि अपने गुणों का अहंकार नहीं करता ॥२॥ शब्दार्थ-'जो--य:' जो पुरुष 'परं जणं--पर जनं' दूसरेपुरुष को 'परिभवईपरिभवति' तिरस्कार करता है 'संसारे--संसारे' चतुर्गतिरूप संसार में 'महंमहत्' चिर कालतक 'परिवत्तई-- परिवर्तते' भ्रमण करता है 'अदुअथवा' अगर 'इंखिणिया उ-इक्षणिका तु' परनिंदा 'पाविया- पापिका' पाप जनक होती है 'इति-- इति' इस प्रकार 'संखाय-संख्याय, जानकर 'मुणीमुनिः' मुनि ‘णो-न' 'मजइ-माधति' मद नहीं करता है अर्थात् अपने गुणों का अहंकार नहीं करता है ॥२॥ -टीकार्थजो पुरुष अन्य जन की निन्दा करता है, वह संसार में दीर्घकाल पर्यन्त - सूत्राथ - જે અન્યને તિરસ્કાર કરે છે, તે આ સંસારમાં ચિર કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. તેથી. પરનિન્દા પાપજનક છે એવું સમજીને મુનિ પિતાના ગુણેને અહંકાર કરતે नथी. ॥२॥ शहाथ-'जो-यः' पुरुष पर जण-परजन' भी पुरुषने 'परिभवई-परि भवति' ति२२४।२ ४२ छे. 'संसार-संसारे ते या२ गतिवा॥ संसारमा 'मह-महत्' ein समय सुधी सभ्या ४२ छ. 'अदु-अथवा' मगर 'इंखिणिया उ-इक्षणिका तु' ५२नि 'पापिया-पापिका' ५५ नडाय छे. 'इति-इति' मा प्रारे 'सखाय'-संख्याय agीने 'मुणी-मुनिः' भनि 'णो-न', 'मज्जइ-माद्यति' अलिमान ४२तो नथी. अर्थात् પિતાના ગુણોને અહોંકાર કરતા નથીપરા - टीथ - જે પુરુષ અન્યની નિન્દા કરે છે, તે સંસારમાં દીર્ઘકાળ પર્યત પરિભ્રમણ કરતે શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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